________________
क्षपणासार
८२]
[माथा ८५ विशेषार्थः-प्रश्वकर्णकरण कार्य के प्रथमसमय में अर्थात् अश्वकर्णकरण करने. वाला प्रथमसमयमें जिस अवहारकालके द्वारा प्रदेशाग्रका अपकर्षग करता है उसकी उत्कर्षण-अपकर्षणभागहार संशा है। वह उत्कर्षण-अपकर्षणभागहार उपरिमपदोंकी अपेक्षा स्तोक है, इससे अपूर्व स्पर्धकों का प्रमाण लानेके लिए एकप्रदेशगुणहानि स्थाना. न्तरको एकबार भाग दिया जाता है और अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे पुनः पुनः भाग दिया जाता है । इसलिए अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका भागहार असंख्यातमुणा है और यह पल्य के असंख्यातवेंभागप्रमाण है । "इसका प्रमाण पत्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवें भाग है" यह ज्ञान कराने के लिए "इससे पत्यका प्रथमवर्गमूल असंख्यातगुणा है" ऐसा कहा गया है । इस भागहारसे एकप्रदेशगुणहानि स्थानान्तरके स्पर्धकों में भाग देनेसे जो लब्ध प्राप्त हो उतने संज्वलनक्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । यह अल्पबहुत्व पर कहो जानेवालो निषेकनरूपणाका सामनभूत है । अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे अपूर्वस्व कोंके लिए एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका भागहार असंख्यात गुणा है इसका कारण यह है कि प्रदेशपिण्ड इसप्रमाण से दिये जाते हैं जिससे कि पूर्व स्पर्धककी वर्गणाओं के साथ अपूर्वस्पर्धककी वर्गणा गोपुच्छाकार हो जावे अर्यात् पूर्व और अर्व दोनों स्पर्धक मिनारक गोपुच्छाकार हो आई । यदि अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका भागहार असंख्यातगुणाहीन हो जाये तो पूर्वस्पर्षकको वर्गणाओं के साथ अपूर्वस्पर्धकवर्गणाको एकगोपुच्छाकार रचना नहीं हो सकती । अपकषित समस्तद्रव्य अपूर्वस्पर्धक अध्वानसे अपवर्तित होने पर अपूर्वस्पर्धकको एकवर्गणाका द्रव्य पूर्वस्पर्धाकको प्रादिवर्गणाके असंख्यातभागप्रमाण होता है ।
'साहे अपुवफयपुटवस्सादीदणंतिमुवदेहि । बंधो हु लताणंसिमभागोत्ति अपुरफड्ढ्यदो।।५।।४७६।।
अर्थ-उस कालमें अपूर्व और पूर्वस्पर्धकोंको आदिसे लेकर अनन्त भागस्पर्धकोंका उदय होता है तथा लताकै अनन्तवेंभाग अनुभागसहित अपूर्वस्पर्धाक होकर बन्धको प्राप्त होते हैं।
१. जयधवल मूल पृ० २०३२ । २. क. पा० सुत्त पृ० ७६३-६४ सूत्र ५२४ से ५२६ । ५० पु०६१० ३३० । जपधवल मूल पृ०
२०३६-३७ ।