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गाथा ८६ ]
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विशेषार्थ- - तत्काल में अपूर्वस्पर्धक रूप से परिणत अनुभाग सत्कर्म मे से असंख्यात वेंभाग प्रदेशका अपकर्षणकर के उदीरणा करनेवाले के उदयस्थिति में सर्व अपूर्वस्पर्धक - स्वरूपसे अनुभागसत्कर्म उपलब्ध होता है, किन्तु अपूर्वस्पर्धक रूप से परिणत सत्कर्म विश्वशेष (पूर्ण) उदय में नहीं आता, क्योंकि अपूर्वस्पर्धक के समान घनवाले जो परमाणु स्पर्धकों में समयस्थित हैं, उनमें से कितने परमाणु उदयको प्राप्त होते हैं और शेष वहीं पर अवस्थित रहते हैं । इसलिए सर्व अपूर्वस्पर्धकका उदय होता भी है और नहीं भी होता है । इसीप्रकार आदिसे लेकर अनन्तवें भागतक पूर्वस्पर्धक भी उदय व अनुदय स्वरूप हैं । पूर्वस्पर्धकों में भी सदृश घनवाले उदय के अभिमुख रहनेवालोंका उदय होता है और तत् जातिस्वरूप शेष अनुदयरूप रहते हैं, क्योंकि विप्रतिषेधका अभाव है ! लता के अनन्तभागसे ऊपर के अनन्तबहुभाग पूर्वस्पर्धाक नियमसे अनुदयस्वरूप हैं, वे सभी अपने-अपने स्वरूपसे उदयको प्राप्त नहीं होते । पूर्व में संज्वलनकषायके अनुभागका पूर्वस्पर्धक स्वरूपसे बन्ध लता के अनन्त वेंभाग स्पर्धकस्वरूपसे प्रवृत्त होते थे, किन्तु अब उससे अनन्तगुणेहीन घटकर प्रथम अपूर्वस्पर्धकसे लेकर लताके अनन्तभाग अनुभागवाले स्पर्धकतक जितने स्पर्धक हैं उन स्पर्धक स्वरूप प्रवृत्त होते हैं, किन्तु पूर्वकथित उदयस्वरूप स्पर्धकों से बन्धस्वरूप स्पर्धक अनन्तगुणेहीन अनुभागवाले होते हैं, क्योंकि यहां पर बन्धसे उदय अनन्तगुणा होता है । यह सब अश्वकर्णके प्रथम समयकी प्ररूपणा है' ।
क्षपणासार
*विदयादिसुसमयेसु वि पढमं व अपूव्वफयाण विही *वरितगुणं होणो अनुभाग पडिलमयं ॥ ८६ ॥ ४७७ ||
१. जयधवल मूल पृष्ठ २०३६-३७ ॥
२. क. पा. सुत्त पृष्ट ७६४ सूत्र ५२७ व ५२८ । धवल पु. ६ पृष्ठ ३७० । ज. घ. मूल पृष्ठ २०३७ ।
३. गाथा ८६ के उत्तरार्ध में मुद्रितप्रति (शास्त्राकार) में पाठ त्रुटित था उसके स्थानपर "णवरि अनंतगुणूर्ण बंधो अनुभाग पश्डिसमय" यह पाठ रखा है जो कि क. पा सुत्तके चूणिसूत्र ५२८ पृष्ठ ७४६ ६ जयधवल मूल पृष्ठ २०३७ के विषयानुसार किया है सो सूत्र इसप्रकार है (अणुभागवंध अतगुणहीण) इस आधारसे ४७७ गाथा के उत्तरार्ध में जो पाठ पूर्ति की है उसे विद्वद्द जन विचारें यदि अशुद्ध प्रतीत हो तो शुद्ध कर लेवें। हमने उपर्युक्त आधारसे स्वकीय बुद्धिद्वारा पाठ पूर्ति की है।