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पाथा १८६-१९० ] लब्धिसार
। १५७ अथानन्तर सकलचारित्रको प्ररूपमा करने हेतु प्रगला सूत्र कहते हैंसयलचरितं तिविहं खयउवसमि उवसमं च खइयं च । सम्मत्तुप्पत्तिं वा उवसमसम्मेण गिरहदो पढमं ॥१६॥
अर्थ-क्षयोपशम, उपशम और क्षायिकके भेदसे सकलचारित्र तीनप्रकारका है। उपशमसम्यक्त्व सहित जो क्षयोपशमचारित्रका ग्रहण होता है, उसका विधान प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समान है।
विशेषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति मिथ्यात्व पूर्वक होती है । अतः मिथ्यादृष्टिजीब प्रथमोपशमसम्यक्त्व सहित सकलचारित्रको महल करता है तो वह क्षयोपशमचारित्रको ही अप्रमत्तगुणस्थानस हित ग्रहण करता है। क्षायोपशमिकचारित्र प्रमत्त व अप्रमत्तसंवत इन दो गुणस्थानों में ही होता है, क्योंकि ऊपरके गुणस्थान उपशम या क्षपकश्रेणिमें ही होते हैं और उनमें उपशम या क्षायिकचारित्र होता है । प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि उपशम या क्षपकओरिग पर प्रारोहण नहीं कर सकता अतः उसके अप्रमत्तगुणस्थानसे ऊपरके गुणस्थान सम्भव नहीं है । सकलचारित्र सहित प्रथमोपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करनेवाले मनुष्य के करणलब्धिमें इतने अधिक विशुद्ध परिणाम हो जाते हैं कि वह अप्रमत्तगुणस्थानमें ही जाता है, पुनः गिरकर प्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त होता है ।
भागे वेबकसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्दो प्रावि जीवके सकलसंयम ग्रहण करते समय होने वाली प्रक्रिया विशेष को बताते हैं
वेदगजोगो मिच्छो अविरददेसो य दोषिण करणेण । देसवदं वा गिरहदि गुणसेढी रणस्थि तक्करणे ॥१६॥
अर्थ-वेदकसम्यक्त्वसहित क्षयोपशमचारित्रको मिथ्यादष्टि या असंयत अथवा देशसंयतजीव देशचारित्र ग्रहण करनेके सदृश ही अधःप्रवृत्तकरण व अपूर्वकरण, इन दो करणोंके द्वारा ग्रहण करता है। उन करणोंमें गुणधेरिण नहीं होती है, किन्तु सकलसंयमके ग्रहण समयसे गुणश्रेरिंग होती है।
१. ध. पु. १ पृ. ४१०, ध. पु. ६ पृ. २०६-७ ।