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বলিষাৰ
[गाथा २६६ विशेषार्थ-बादर लोभको प्रथम स्थितिमें उच्छिष्टावलि शेष रहने पर उपशमनावलिके चरमसमयमें संज्वलनलोभका एक समयकम दो प्रावलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहता है, कृष्टियां सभी अनुपशान्त रहती हैं। तथा नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिको छोड़कर बादर संज्वलनलोभका शेष सर्वद्रव्य व अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्यारयानावरणका सर्व द्रव्य अशान्त रहता है । अर्थात स्पर्धकागत लोभसंज्वलन सम्बन्धी सर्व प्रदेशज इस समय उपशान्त हो चुकता है, किन्तु कृष्टिगत प्रदेशपूज अभी भी अनुपशान्त रहता है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायकाल में कृष्टियोंकी उपशामना होती है । परन्तु दोनों प्रकारका लोभ पूरा ही उपशान्त हो चुकता है । नवक बन्धादिकका अनुपशम रहता है । यही अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक संयत है, क्योंकि अनिवृत्तिकरणकालका अन्त देखा जाता है । सार यह है कि जब प्रत्यावलीमें एक समय शेष रहता है उसो समय लोभसंज्वलनका सर्व स्पर्धकरूप द्रव्य तथा सकल ही प्रत्याख्यान-अप्रत्याख्यान लोभ द्रव्य उपशान्त हो जाता है मात्र (१) नवक समय प्रबद्ध (२) उच्छिष्टावलिमात्र निषेक (३) सूक्ष्मकृष्टि ये उपशान्त नहीं होते।
अथानन्तर सूक्ष्मसाम्परायमें किये जाने वाले कार्य विशेष का कथन करते हैंसे काले किटिस्स य पढम द्विदिकारवेदगो होदि । लोहगपढमठिदीदो अद्धं किंचूयं गत्य ॥२६६॥
अर्थ-अनिवृत्तिकरण कालके क्षीण होने पर अनन्तर समयमें कृष्टियोंकी प्रथम स्थितिका कारक व वेदक होता है । बादर लोभकी प्रथम स्थितिके कुछकम आधेभागप्रमाण कृष्टियोंकी प्रथम स्थिति है।
विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरण कालके क्षीण होनेपर अनन्तर समयमें ही वह सूक्ष्मष्टि वेदक रूपसे परिणमकर सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानको प्राप्त हो जाता है। प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक संयतजीव उसी समय दूसरी स्थितिमेंसे कृष्टिगत प्रदेशपुजका अपकर्षण भागहारके द्वारा अपकर्षणकर उदयादि श्रेणिरूपसे अन्तमुहर्त आयामको लिये हुए प्रथमस्थितिका विन्यास करता है। बादर लोभकी प्रथम स्थिति, समस्त लोभ वेदककालके साधिक दो बटा तीन (३) भागप्रमाण होती है। कुछकम उसका अर्धभागप्रमाण सूक्ष्मसाम्परायको प्रथम स्थितिका विन्यास होता है। यहां की
१. ज. ध पु १३ पृ. ३१८-१६ ।