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गाचा ६९-७०]
क्षपरणासास
प्रामाल-प्रत्यागाल होकर पुन: तदनन्तरसमय में एकसमयकम दोआवलि शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल अनुपपादानुच्छेदके द्वारा व्युच्छिन्न हो जाते हैं, यह उक्त गाथाका अभिप्राय है, क्योंकि उत्पादानुच्छेदका आश्रयलेकर सद्भावके अन्तिम समयमें ही उसके अभाबका विधान गाथामें किया गया है। यहोंसे पुरुषवेदको गुणश्रेणी भी नहीं होतो । 'प्रत्यावलिमें से ही असंख्यातसमयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है |
पुरुषवेदको प्रथमस्थितिमें एकसमयअधिक आबलि शेष रहनेपर जघन्यस्थिति। उदीरणा होती है । अर्थात् पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति जब समाप्त हो जाती है और मात्र उदयावलि एवं उसके ऊपर तदनन्तर एक विषेक रह जाता है उससमय उदयालिसे बाह्य एकनिषेकको स्थिति एकसमयअधिक उदयावलिमात्र है। तदनन्तरसमयमें वह निषेक भी उदयावलिमें प्रवेश कर जाता है तब पुरुषवेदकी उदीरणा भी व्युच्छिन्न हो जाती है और वह चरमसमयवर्ती सवेदी होता है । उदयालिप्रमाण निषे कोंका प्रति. समय परमुख उदय होता रहता है, स्वमुखउदय नहीं होता।
'अंतरकदपढमादो कोहे छण्णोकसाययं छुहदि । पुरिसस्स चरिमसमए पुरिसवि एणेण सम्वयं छुहदि ॥६६॥४६०॥ समऊणदोरिणावलिपमाणसमयप्पबद्धणवबंधो। विदिये ठिदिये अस्थि हु पुरिसस्तुदयावली च ॥७०॥४६१॥
१. उदयालिसे बादकी (ऊपरको) आवलिको प्रत्यावलि कहते हैं । २. जयधवल पु० १३ पृष्ठ २८५-८६ । ३. "समयाहियाए आवलियाए सेसाए जहपिण्या ठिदि उदीररणा" (क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र
२५०; धवल पु. ६ पृष्ठ ३६४; जयधवल मूल पृष्ठ १९७१) ४, "अंतरादो दु समयकदादो पाए छण्णोकसाए कोधे संछह दि" ॥२४८ । क. पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ ।
"अंतरादो पढमसमयकदादो पाए छपरणोकसाए कोहे संहदि ।" (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४) "तदो चरिमसमयपुरिसवेदओ जादो । ताचे छपणोकसाया संछुद्धा । पुरिसवेदस्स जाओ दोआवलियाओ समयूणाओ एत्तिगा समयपबद्धा विदिट्टिदीए अत्थि, उदयट्ठिदी च अस्थि, सेसं पुरिसवेदस्स संतकम्मं सव्वं संछुद्धं ।" (क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २५१ से २५३; धवल पु०
६ पृष्ठ ३६४; जयधवल मूल पृष्ठ १६७१-७२) ५. "उदयावली' इत्यस्यस्थाने 'उदयविदि' इति पाठो वर्तते ध• पु० ६ पृष्ठ ३६४ एवं क. पा०
सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४३, (जयधवल मूल पृष्ठ १६७२) ।