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क्षपणासार
[गाथा ७१
भागको द्विचरमावलिके दूसरे समय में बंधा समयप्रबद्ध अवेदभागके प्रथमसमयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है अत: गाथा ७० में सवेदभागको द्विचरमावलीके प्रथमसमयप्रबद्धको कभकरके ही "सभऊण दोषण आवलिय" अर्थात् एकसमयकम दोआवलि कहा गया है।
अथानन्तर अश्वकर्णकरणका स्वरूप कहते हैं'से काले ओवट्टणिउव्वट्टण अस्सकरण आदोलं ।
करणं तियसरणगदं संजालणरसेसु वटिहिदि ।।७१॥४६२॥
अर्थ:--(अन्तिमसमयवर्ती पुरुषवेदके) "से काले" अनन्तरसमय में अपवर्तनउद्वर्तन, अश्वकर्णकरण, आदोलकरण ऐसा तीन नामवाला करण संज्वलनकषायके अनुभागमें प्रवृत्त होता है।
विशेषार्थः-अश्वकर्णकरण, प्रादोलकरण, अपवर्तचोद्वतनकरण ये तीनों एकार्थक नाम हैं । अश्वकर्ण अर्थात् घोड़ेके कान के समान जो क्रोषसंज्वलनसे लोभसंज्वलनतक अनुभागस्पर्धक क्रमसे हीयमान होते हुए चले जाते हैं उनको अश्वकर्णकरण कहते हैं। आदोल हिंडोलेको कहते हैं, जिसप्रकार हिंडोलेके स्तम्भ और रस्सीके अन्तरालमें घोड़ेके कान सदृश त्रिकोणाकार दिखता है इसीप्रकार यहां भी क्रोधादि संज्वलनकषायों के अनुभागका सन्निवेष भी क्रमसे घटता हुआ दिखता है अतः इसे आदोलकरण भी कहते हैं । क्रोधादिकषायोंका अनुभाग क्रोधसे लोभकषायपर्यन्त हानिरूप और लोभसे क्रोघ
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१. किन्तु धवल पु० ६ पृ. ३६४ पर टिप्पण नं. १ में "से काले औवणि उबट्टण मस्करण
आदोल" इति । गाथाके पूर्वार्धका यह पाठ शुद्ध प्रतिभासित होता है । अत: लब्धिसार-क्षपणासार मुद्रितप्रतिमें छपे "से काले ओबट्टणिउट्टण अस्सकण्ण आदोल" के स्थानपर उपर्युक्त शुद्ध पाठ ही दिया है । 'अस्सकण्णकरणे त्ति वा आदोलकरणे ति ओवट्टण-उच्चट्टणकरणे त्ति का तिणि णामाणि अस्सकग्णकरणस्स" क० पा० सुत्त प० ७८७ सूत्र ४७२ । जयधवल मूल पृ० २०२२ ।