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गाया ६६] क्षपणांसार
[ ५६ विशेषार्थ:-अनभागकाण्डकका काल अन्तमुहर्त है, अतुभागकाण्डक काल में प्रतिसमय एक-एक फालिका पतन होता है । फालिपतनसे यद्यपि फालीप्रमाण कमप्रदेशोंका अनुभाग अनन्तगुणाहीन हो जाता है, किन्तु शेष कर्मप्रदेशों में उतना ही रहता है। अतुभागकाण्डक के शेष सर्व कर्म प्रदेशोंका अन्तिमफालिद्वारा ग्रहण होता है अतः अन्तिमफालिके पतन के समय सर्वप्रदेशों में से अनुभागघात होकर अनन्तगुणाहीन हो जाता है । जबतक अन्तिमफालीका पतन नहीं होता तबतक अनुभागकाण्डक काल में अनुभागसत्कर्म उतना ही रहता है इसलिए अनुभागसंक्रमण भी उतना ही अवस्थितरूपसे होता रहता है । अनुभागकाण्डककी अन्तिमफाली के पतन होनेपर अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणाहीन हो जाने से अनुभागसंक्रमण भी अनन्तगुणाहीन होता है। यही क्रम अन्य अनुभागकाण्डकोंके विषयमें भी जान लेना चाहिए ।
'सत्तएहं संकामगचरिमे पुरिसस्स बंधमडवस्सं । सोजस संजलणाणं संखसहस्साणि लेसाणं ॥६६॥४५७॥
अर्थ:--सातक के संक्रमणके अन्तिमसमयमै पुरुषवेदका आठवर्षप्रमाण, संज्वलनकषायोंका १६ वर्षप्रमाण एवं शेष छहकर्मीका संख्यातहजारवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है।
विशेषार्थः-पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन सात नोकषायरूप कर्मों के संक्रामक अर्थात् क्षपकके अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षसे यथाक्रम घटकर पुरुषवेदका पाठवर्षप्रमाण, सञ्ज्वलन क्रोध-मान-माया व लोभका १६ वर्षप्रमाण और शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय, नाम व गोत्र इन घातिया-अघातियारूप छहकर्मीका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षप्रमाण होता है । यहापर पुरुषवेदकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाने से पुरुषवेदका यह आठवर्षवाला जघन्य स्थिति बन्ध होता है तथा शेषकोका जघन्यस्थितिबन्ध अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके समय होता है । इन उपयुक्त पुरुषवेदादि सातकर्मोका क्षय कोषसञ्चलन में संक्रमणके द्वारा होता है अत: माथामें 'क्षपक' के स्थानपर 'संक्रामक' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँपर संक्रामकका अभिप्राय क्षपफसे ही है।
१. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४३-४४-४५ । प. पु. ६ पृष्ठ ३६३ । ज० घ० मू० पृष्ठ १९७० ।