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चतु:स्थानीय अनुभागबन्ध
परिभाषा दिया जाता है, उन निषेकों का नाम गुणवेणी निक्षेप है। उन निषेको की संख्या का प्रमाण ही गुणधेरणी अायाम है। प्रशस्त प्रकृतियों का गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृतोपम रूप अनुभाग दन्ध पतुःराय माग बन्ध कहलाता है । अप्रशस्त प्रकृतियों में "चतु:स्थानीय' शब्द से नीम, कोजीर, विष और हलाहलोपम लेना चाहिये । अथवा घातिया की अपेक्षा लता-दारु-अस्थि-शंस लेना चाहिये । प्रयत्' चारित्र मोहनीय (चालिस कोटा कोटी स्थितिबन्ध वाले कर्म चालीसिया कहलाते हैं) मूल और वृद्धि दोनों को मिलाकर स्थिति बन्ध के पूरे प्रमाण का निर्देश करना। विवक्षित प्रकरणमें यस्थिति बन्ध का यही तात्पर्य है। इसमें बाबाषा भी शामिल है । जम् प० १९१२; (यस्थितिबन्ध में बाधा भी गिनी जाती है घ० ११/
चालीसिया
जस्थिति
२८०,२६७
१०५
तीसिया असचतुष्क दूरापकृष्टि
१०७, ११६,
शानावरण, दर्शनावरण वेदनीय तथा अन्तराय को तीसिया कहते हैं। अर्थात् ' त्रस, बादर, पर्याप्त भौर प्रत्येक ।' जिस अवशिष्ट स्थिति सत्कर्म में से संख्यात बहुभागको ग्रहण कर स्थितिकाण्डकका घात करने पर घात करने से शेष बना स्थिति सत्कर्म नियम से पल्पोपम के असंख्यात भाग प्रमाण होकर अवशिष्ट रहता है उस सबसे अन्तिम पल्पोपम के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति सत्कर्म को दूरापकृष्टि कहते हैं । जय धवला पु. १३ पृ० ४५ तात्पर्य यह है कि जब स्थितिकाण्डकघात होते-होते सत्कर्म स्थिति पल्योपम प्रमाण शेष रह जाती है तब स्थितिकाण्डक का जो प्रमाण पहले था यह बदल कर अवशिष्ट स्थिति-सत्कर्म का संख्यात बहुभाग हो जाता है । भोर इस प्रकार उत्तरोत्तर उक्त विधि से स्थितिकाण्डकघात होते होसे जब सबसे जघन्य पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति शेष रह जाती है तब वह "दुरापकृष्टि", इस नाम से पुकारी जाती है । यह घटते घटते प्रति अल्प रह गई है, इसलिये इसे "दूरापकृष्टि" कहते हैं । प्रथका शेष रही इस स्थिति से प्रागे उत्तरोत्तर प्रवशिष्ट स्थिति के असंख्यात बहुभाग असंख्यास बहुभाग प्रमाण स्थिति को ग्रहण कर स्थितिकाण्डकपात होता इसलिये इसे "दुरापकृष्टि" कहते हैं । जय षक्ला पु० १३ पृष्ठ ४७