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पू. आचार्यकल्प श्री की प्रधान सन्निकटता में एवं वर्धमानसागरजी महाराज श्री के साथ ] का सुअवसर मिला । हमने इसमें यथाबोध अपनी प्रतिभा का पूरा उपयोग किया। अब लब्धिसार-क्षपणासार तो छपकर तैयार है तथा जीवकाण्ड की गुरुवर्यकृत टीका की प्र ेसकापी [ पाण्डुलिपि ] हो रही है। प. पू. श्रुतसागरजी महाराज का अकथनीय सहयोग, प्रस्तुत ग्रन्थ को वाचना आदि में न होता तो यह कार्य नहीं हो सकता था ।
पूज्य गुरुवयं लब्धिसार--क्षपणासार का टीका कार्य तो पूरा कर चुके थे तथा क्षपणासार उनकी उपस्थिति में ही छप चुका था, परन्तु लब्धिसार प्रेस में नहीं गया था। उसकी तो प्र ेस कापी भी बनानी शेष थी । लब्धिसार-क्षपणासार की तरह वे जोवकाण्ड की टीका पूरी नहीं कर पाये थे । वे ६६६ गाथाओं की टीका लिख चुके थे । अर्थात् अन्तिम ३७ गाथाओं की टीका लिखनी अवशिष्ट रह गई थी कि दिनांक २८-११००० को सन्ध्या के घर बजे इतर शरीर को छोड़कर
दिवंगत हुए ।
हां ! अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, निरीह तथा ज्ञान व त्याग के समन्वय से युक्त वह सत्पुरुष श्रब कहां ? अब तो उनको कृतियां ही उनकी स्मारिकाएं हैं। पूज्य गुरुजी के लिये कहे गये कतिपय विद्वानों एवं श्रीमानों के उद्गार -
१. श्रीमान् स्व. . पं रतनचन्द्र मुख्तार, सहारनपुर वाले कररणानुयोगरूपी नभमण्डल के उदीयमान मार्तण्ड थे । गणित का आपको इतना ज्ञान था कि जो भाज के गणित के पी० एच० डी० को भी नहीं होगा ।
परमविदुषी पृ० १०५ श्र० विशुद्धमतीजी [ त्रिलोकसार, त्रिलोकसार दीपक आदि सिद्धान्त ग्रन्थों को टीकाकर्त्री ]
२. चतुरनुयोग के अवगम को प्राप्त ब० रतनचन्द्रजी की साधना उत्कृष्ट थी ।
३.
डॉ० पं० ० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर ( M.P.)
सादे और त्यागमय जीवन वाले सत्पुरुष स्व० ० रतनचन्द्रजी करणानुयोग के अधिकारी विद्वान् थे । सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी सि。शास्त्री, काशी
४. स्व० बाबुजी रतनचन्द्रजी मुख्तार समतापूर्ण विद्वत्ता और विद्वत्तापूर्ण समता के धनी थे । अवसहस्र पृष्ठ प्रमारंग जनेन्द्र सिद्धान्त कोश अंसो अमर कृति
के निर्माता क्षु० जिनेन्द्र व
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