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गाथा १० ]
क्षपणासार
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जिन प्रकृतियों का बन्ध पाया जाता है ऐसी ) स्वजातीय प्रकृतियों में संक्रमण करता है: अर्थात् तद्रूप परिणमन कर जाता है ।
विशेषार्थ :- यह गुणसंक्रमण अबन्धरूप अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही होता है, अन्य में गुणसंक्रमण की प्रवृत्ति असंभव है' । जैसे - असातावेदनीयप्रकृतिका द्रव्य साता वेदनीयरूप परिणमन करता है, इसीप्रकार अन्य प्रकृतियों का भी जानना |
प्रोट्टा जहरा आउलियाऊणिया तिभागेण । एसा द्विदिसु जहा तहाणुभागे सांते ॥ १० ॥ ४०९ ॥
अर्थ :- जघन्य अपवर्तनाका प्रमाण त्रिभागसे होन आवलिप्रमाण है । यह जघन्य अपवर्तना स्थितिके विषय में ग्रहण करना चाहिए, किन्तु अनुभागविषयक जघन्य अपवर्तना अनन्त स्पर्धकोंसे प्रतिबद्ध है ।
विशेषार्थ :- यद्यपि इस गाथा में स्थितिसम्बन्धी अपकर्षणको जघन्य अति स्थापनाका कथन किया गया है, तथापि देशार्षक होने से स्थिति अपकर्षण- उत्कर्षणसम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेपका कथन करना चाहिए। अनुभाग के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि जबलक अनन्तस्पर्धक अतिस्थापनारूपसे निक्षिप्त नहीं हो जाते तब तक अनुभागविषयक अपवर्तनाको प्रवृत्ति नहीं होती है ।
उदयसे लेकर एकसमय अधिक आवलिप्रमाण स्थितिवाले निषेक के द्रव्यका अपकर्षण होनेपर समयक्रम आवलिका दो-त्रिभाग ( 3 ) तो अतिस्थापना है और शेष नीचेका समयाधिक आवलिका त्रिभाग निक्षेप है । स्थिति अपकर्षणसम्बन्धी यह जघन्यअतिस्थापना व निक्षेपका प्रमाण है। उससे अनन्तर उपरिमनिषेक ( उदद्यावलिके बाहर द्वितीयनिषेक) का अपकर्षण होनेपर निक्षेप तो पूर्ववत् समयकम आवलिके त्रिभागसे
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१. जयधवल मूल पृ० १६५१ ।
२. यह गाथा क० पा० की गाथा १५२ के समान है तथा यह धवल पु० ६ पृष्ठ ३४६ तथा क०
पा० सुत्त पृष्ठ ७७४ पर भी है । यद्यपि क्षपणासार में 'उबट्टा।' यह पाठ था, किन्तु वह अशुद्ध प्रतीत होता है अतः उसके स्थान पर 'ओवट्टणा' यह शुद्ध उक्त आधारसे रखा गया है । ज० ध० मूल पु० २००२ पर भी यह गाथा दी गई है ।
३. जयघवल मूल पृ० २००२, क० पा० सु० दृष्ट ७७४ ।