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गाथा ३०-३१ ] क्षपणासार
[ ३१ मात्र ही है। यहां नाम व गोत्रका सबसे स्तोक उससे ज्ञानावरणादि चार तोसियकर्मों का असंख्यात गुणा उससे मोहनीयकर्मका संख्यातगुणा स्थितिबन्ध जानना । इसक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होने पर ज्ञानावरणादि (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय) तीसीय कर्मोंका स्थितिबन्ध दुरापष्टिका उलंघनकरके जब पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र हो जाता है । तब नाम व गोत्रकर्मका स्तोक उससे तोसीयकर्मोका असंख्यातगुणा सौर उससे मोमीक सल्यानमा स्थितिबन्ध है । इसक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर दुरापकृष्टि को उलंघकर मोहनीयकर्मका भी पल्यके असंख्यातवेंभाग स्थितिबन्ध हो जाता है । यहां सभी कर्मोंका पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होता है । इसीप्रकार बीसीय, तीसीय और चालीसीयकर्मीका पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध क्रमसे होता है ।
"उदधिसहस्सपुधत्तं अब्भतरदो दु सदसहस्सस्स । तककाले ठिदि संतो आउगवज्जाण कम्माणं ॥३०॥४२१॥
अर्थः--उस मोहनीयकर्मका पल्पके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होने के कालमें आयुबिना अन्यकर्मों का स्थितिसत्त्वपृथक्त्व हजारसागर प्रमाण होता है सो पृथक्त्वहजार शब्दसे यहां लक्षके भीतर यथासम्भव प्रमाण जानना । पहले पृथक्त्व लक्षसागरका स्थितिसत्त्व था सो संख्यातहजार स्थिति काण्डकघातोंके द्वारा यहां इतना शेष
शंका:-स्थितिबन्ध में जिसप्रकार असंख्यातगुणा क्रम हो गया था उसीप्रकार स्थितिसत्त्वमें असंख्यातगुणा क्रम क्यों नहीं हुआ ?
समाधान:--स्थितिसत्त्वमें असंख्यातगुणा क्रम नहीं हुआ, क्योंकि स्थितिबन्ध से स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा है अत: सदृश अपवर्तन सम्भव नहीं है ।
'मोहगपल्लासंखट्टिदिबंधसहस्सगेसु तीदेसु ।
मोहो तीसिय हेट्ठा असंखगुणहीणयं होदि ॥३१॥४२२।। १. ज०१० मूल पृष्ठ १६५६ से १६५६ । क. पा. सुत्त पृष्ठ ७४५-४६-४७ सूत्र ६४ से १२४ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४७ सूत्र १२५; ध० पु० ६ पृष्ठ ३५२ । ३. ज० घ. मूल पृष्ठ १६६० । ४. यह गाथा ल० सार गाथा २३३ के समान है । क. पा. सुत्त पृ० ७४७ सूत्र १३० से १३३,
धवल पु० ६ पृष्ठ ३५२ ।