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। गाय
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क्षपणासाय
[ गाया ४३-४४ 'संजलणाणं एक्कं वेदाणेक्कं उदेदि तद्दोगह ।
सेसारणं पढमद्विदि ठवेदि अंतोमुहुत्तमावलियं ॥४३॥४३४॥
अर्थः-सञ्ज्वलनचतुष्क में से कोई एक और तीनों वेदों में से कोई एक इस- प्रकार उदयरूप दो प्रकृतियोंकी तो अन्तमुहर्त प्रमाण प्रथमस्थिति स्थापित करता है । इनके बिना जिनका उदय नहीं पाया जाता ऐसी ११ प्रकृतियों को प्रथमस्थिति आवलिप्रमाण स्थापित करता है।
विशेषार्थ:-जो पुरुषवेद और क्रोधके उदयसहित श्रेणी मांडना है बह इन दोनोंको प्रथमस्थिति तो अन्तमुहर्तामात्र तथा अन्य प्रकृतियोंकी आवलिमात्र प्रथमस्थिति करता है सो वर्तमानसमयसम्बन्धो निषेकसे लेकर प्रथमस्थिलिप्रमाण निषेकोंको नीचे छोड़कर इनके ऊपर गुणश्रेणी शोर्षसे सहित प्रथमस्थिति से संख्यातगुणे निषेकों का अन्तर करता है। स्त्रोवेद, नपुसकवेद और छह नोकषाय का जितना क्षपणाकाल है उतने प्रमाण पुरुषवेदको प्रशस्थिति है, जो कि सबसे स्तोक है, उससे संज्वलन क्रोधको प्रथम स्थिति विशेष अधिक है, जो कि संज्वलनक्रोधके क्षपणाकालप्रमाणसे विशेष अधिक है। उदयस्वरूप और अनुदयस्वरूप सभी नोकषायोंको अन्तिम स्थिति सदृश ही होतो है, क्योंकि द्वितोयस्थिति के प्रथम निषेकका सर्वत्र सदृश रूपसे अबस्थान होता है, किन्तु अवस्तन प्रथमस्थिति विसदृश है, क्योंकि उदयरूप प्रकृतियों की प्रथमस्थिति अन्तमुहर्त है और अनुदय प्रकृतियों की प्रथम स्थिति आवलिमात्र है ।
'उक्कीरिदं तु दवं संत्ते पढमट्ठिदिम्हि संथुहदि । धंधेवि य आवाधमदित्थिय उक्कदे णियमा ॥४४॥४३५॥
अर्थ:--अन्तररूप निषेकोंके द्रव्यको सत्त्वमेंसे अपकर्षणकरके प्रथमस्थिति में निक्षेपण करता है और जिन कर्मों का बन्ध होता है उनके अपकर्षितद्रव्यको आबाधा छोड़कर बन्धरूप निषेकोंमें भी निक्षेपण करता है ।
१. यह गाथा ल. सा. गाथा २४२ के समान है, किन्तु "तहोण्ह" के स्थानपर वहाँ "तं दोण्हं"
यह पाठ है। क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५२ सूत्र २०६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५७ । २. जयधवल मूल पृ० १६६५ । ३. क. पा० सुत्त प० ७५२-५३ सूत्र २१० से २१४ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५८ ।