________________
५६ ] क्षपणासार
गाथा ६२ अप्रशस्तप्रकृतियोंके अनुभागका प्रतिसमय अनन्त गुणित हीन श्रेणिरूपसे वेदन (उदय) होता है।
विवक्षितसमयमें अप्रशस्तप्रकृतियों का जो अनुभागबन्ध होता है वह स्तोक है, उसीसमयमें बन्धसे अनुभागोदय अनन्तगुणा होता है अर्थात् अनुभागोदयसे अनुभागबन्ध अनन्त गुणाहीन होता है, क्योंकि अनुभागोदय चिरंतनसत्त्वके अनुरूप है अर्थात् पूर्वबद्ध अनुभागका उदय विवक्षितकाल में होता है और पूर्वबद्ध अनुभागसत्कर्म विवक्षितसमयमें बंधनेवाले अनुभागसे अनन्त गुणा होता है । अन्तिमसमय में बद्ध अनुभागसे वही उदयागत गोपुच्छाका अनुभागसत्कर्म अनन्त गुणा है, उससे द्विचरमसमय में होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्त गुणा है, उससे बही उदयागत गोपुच्छाका अनुभागसत्कर्म अनन्त गुणा है। इस प्रकार अपूर्वकरणके प्रथम समयपर्यंत क्रमसे नीचे उतरना चाहिए ।
विवक्षितसमयमें अनन्तर उत्तरसमय में अशुभप्रकृतिका जो अनुभागोदय है वह विवक्षितसमयके अनुभागबन्धसे अनन्त गुणाहीन है । इसप्रकार अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तितक ले जाना चाहिए ।
'बंधेण होदि उदो अहियो उदयेण संकमो अहियो । गुणसेडि अांतगुणा बोधवा होदि अणुभागे ॥६२॥४५३॥
१. क. पा० सुस पृष्ठ ७५० गाथा १४६ का पूर्वार्ध एवं सूत्र ३५६ । धवल पु०६ पृष्ठ ३६२
!'अणुभागबन्धो अणुभागउदओ च समयं पडि असुहाण कम्माणमणतगुणाहीणो"। जयधवल
मूल पृष्ठ १९६६। २. "वट्टमारणसमयपबद्धादो वट्टमासमए उदओ अणंतगुणो त्ति दबो। किं कारणं ? चिराण
संत सरूवत्तादो।" (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६२ टि० नं०३ व जयधवल मूल पृष्ठ १९६६) जयधवल पु० ५ पृष्ठ १४६ । क. पा. सुत्त पष्ठ ७७. सूत्र ३४१ से ३५२ व गाथा १४५ का उत्तरार्ध । "से काले उदयादो एवं भरिणदे गिरुद्धसमयादो तदर्णतरोवरिमसमए जो उदो अणुभागविसओ, तत्तो एसो संपहिसमयपबद्धो अर्णतगुणो त्ति दट्ठव्यो । कुदो एवं च समए समए अगुभागोदयस्स विसोहिपाहम्मेणगंत गुणहाणीए ओट्टिज्जमाणस्स तहाभावोववत्तीए । (जय
धवल मूल पृष्ठ १९६६, धवल पु० ६ पृष्ठ ३६२ टि० ० ३) ४. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६६ गाथा १४३ । धवल पु०६५० ३६२। जयघवल मूल पृष्ठ १९६३।