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गाथा ६१ 1 शपणासार
[ ५५ ___ अर्थः-पथक्त्वस्थितिखण्डोंके हो जानेपर सात नोकषायोंके क्षपणाकालका संप्रातभार माना हो जाता है उसमय तीनघातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व संख्यातवर्षप्रमाण रह जाता है ।
विशेषार्थः-अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष हो जाने के पश्चात् जब 'पृथक्त्व अर्थात् बहुत स्थितिकाण्डक व्यतीत हो जाते हैं और पुरुषवेद व हास्यादिछह नोकषायोंके क्षरणाकालका संख्यातबहुभाग व्यतीत हो जाता है तथा संख्यात वांभाग शेष रह जाता है उसपमय ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय इन तीन घाति याकर्मोंका स्थिति सत्कर्म संख्यातवर्षप्रमाण रह जाता है । जो स्थिति सत्त्व पूर्व में असंख्यात. वर्षवाला था वह स्थितिकाण्डकोंके द्वारा घातित होकर संख्यात वर्षमात्र रह जाता है, क्योंकि सात नोकषायके क्षपणकालमैं संख्यात हजारवर्ष आयामवाला भी स्थिति काण्डक होता है । यहां से लेकर तोन (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) पाति या कर्मोके प्रत्येक स्थितिबन्धापसरण और स्थिति काण्ड कके पूर्ण होने पर स्थितिबन्ध एवं स्थिति सत्त्व संख्यातगुणे हीन होते जाते हैं । स्थिति काण्डकायाम व स्थितिबन्धापसरण का विषय भी संख्यातगुणा है । स्थिति काण्ड कके पूर्ण होने पर नाम, गोत्र व वेदनीयकर्म का स्थिति सत्त्व असंख्यातगुणाहीन हो जाता है। इस क्रमसे तबतक जाते हैं जबतक कि सात नोकषायोंके संक्रामकका अन्तिमस्थितिबन्ध होता है।
पडिसमयं असुहाणं रसबंधुदया अणंतगुणहीणा । बंधोवि य उदयादो तदणंतरसमय उदयोथ ॥६१॥४५२।।
अर्थः--अशुभप्रकृतियों का अनुभागबन्ध व अनुभाग उदय प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन होता है। अनुभागउदयसे अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन होता है, किन्तु इस बन्धसे अनन्तरसमय में होने वाला उदय अनन्तगुणाहीन होता है।
विशेषार्थ:--अशुभप्रकृतियों के अनुभागका उदय पूर्वसमय में बहुत होता है । इससे अनन्तर उत्तरसमयमें अनुभागोदय अनन्त गुणाहोन होता है। इसप्रकार आगे-मागेके समयों में अनुभागका उदय अनन्त गुणा-अनन्त गुणाहीन होता है । अर्थात्
१. यहां पृथक्त्व शब्द विपुलवाचो है।