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गाथा २५ ] क्षपणासार
[ २७ अर्थ:--इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जानेपर अनियत्तिकरणकालके संख्यात बहभाग तो व्यतीत हो जाते हैं तथा एकभाग शेष रहने के अवसरमें असंज्ञीचेन्द्रियकी स्थितिके समान स्थितियार होता है ।
विशेषार्थ:-उपयुक्त आवश्यकोंका पालन करते हुए अन्तमुहर्तकाल व्यतीत हो जानेपर प्रथमअनुभाग काण्डक निर्लेपित होता है तथा शेष अनुभागके अनन्तबहभागको घात करने वाला अन्य अनुभागकाण्डक होता है अवशिष्ट आवश्यकों में कोई अन्तर नहीं होता । संख्यातहजारअनुभागकाण्डकोके व्यतीत हो जाने पर प्रथमस्थिति काण्डक व प्रथमस्थितिबन्धापसरण व अन्य अनुभागकाण्डक एकसाथ समाप्त होते हैं । इसप्रकार अनुक्रम लीये एक स्थितिबन्धापसरण द्वारा स्थिति बन्ध घटने से एक स्थितिबन्ध होता है ऐसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अनिवृत्तिकरण के कालका संख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर एक भाग अवशेष रहा वहाँ असंज्ञीपञ्चेन्द्रियके समान स्थितिबन्ध होता है, वह इसप्रकार है-एक हजारसागरके वां भागमात्र मोहनीयका, वां भाग ज्ञानावरणादि चारकर्मोका और 3 वां भाग नाम-गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध होता है। चालीस, तीस व बीस कोड़ाकोड़ीसागर स्थितिकी अपेक्षा चारित्रमोहको चालीसीय, ज्ञानावरणादि चारकर्मोको तीसीय एवं नाम-गोत्रको बीसिय जानना चाहिए ।
"ठिदिबंधसहस्सगदे पत्तेयं चदुरतियविएइंदी । टिदिबंधसमं होदि हु ठिदिबंधमणुक्कमेणेव ॥२५॥४१६॥
अर्थः-पूर्वोक्तक्रम लीये संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अनुक्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, हीन्द्रिय और एकेन्द्रियके समान स्थितिबन्ध होता है। इनमें चतुरिन्द्रियके समान तो १०० सागर, श्रीन्द्रियके समान ५० सागर, द्वीन्द्रियके समान २५ सागर, एकेन्द्रियके समान एकसागरका वां भाग मोहनीयका, वां भाग ज्ञानावरणादि चार तीसीय कर्मोका, ३ भागमात्र नाम-गोत्र बीसिय कर्मोंका स्थितिबंध होता है।
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीके ७० कोडाकोड़ी सागर स्थितिवाले मिथ्यात्यकर्मका क्रमसे एक, पचीस, पचास, सौ और एकहजार सागरका
१. जयधवल मूल प० १६५६ । २. यह गाथा ल० सा० गाथा २२६ के समान है, किन्तु 'सहस्स' के स्थानपर पुधत्त' पाठ है।
क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४४ सूत्र ८२-८३ ।