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क्षपणासार
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[ गाथा २६-२८ स्थिति बन्य होता है तो क्रमशः चालीस, लोस व बीस कोड़ाकोड़ीरूप उत्कृष्टस्थितिवाले मोहनोय, ज्ञानावरणादि चार और नाम व गोत्रकर्मका कितना बन्ध होगा ? इसप्रकार त्रैराशिक करने पर पूर्वोक्त स्थितिबन्धका प्रमाण प्राप्त होता है। यही त्रैराशिकक्रम आगे भी जानना'।
'एइंदियद्विदीदो संखलहस्से गदे हु ठिदिबंधे ।
पल्लेकदिवड्डदुगं ठिदिबंधो वीसियतियाणं ॥२६॥४१७॥
अर्थः-एकेन्द्रियके समान स्थितबन्धसे आगे संख्यातहजार स्थिति बन्ध जानेपर नाम गोत्रका (वोसियका) एक पल्य, तोसीयाक्रमौका १३ पल्य और मोहनीयका दो पल्य स्थितिबन्ध होता है ।
तक्काले ठिदिसंतं लक्वपुधत्तं तु होदि उबहीणं । बंधोसरणा बंधो ठिदिखंडं संतमोसरदि ॥२७॥४१८॥
अर्थः-उस कालमें कर्मोंका स्थितिसत्त्व पृथक्त्वलक्ष सागरप्रमाण होता है सो अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्ध से संख्यातगुणाकम जानना "स्थिति. बंधापसरण के द्वारा स्थितिबन्ध घटता है और स्थितिकाण्डकोंसे स्थितिसत्त्व कम होता है" ऐसा सर्वत्र जानना ।
विशेषार्थ:-जिस समय नाम व गोत्रकर्मका पल्योपमको स्थितिवाला बन्ध होता है उस समय अल्पबहुत्व इसप्रकार है-नाम ब गोत्र का स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकर्म का स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पूर्वके स्थितिबन्ध भो इसी अल्पबहुत्व विधानसे व्यतीत होते हैं।
"पल्लस्स संवभागं संखगुणणं असंखगुणहीणं ।
बंधोसरणे पल्लं पल्लासंखं असंखवस्तंति ॥२८॥४१६॥ १. जयधवल मूल पृ० १९५६ । २. यह गाथा रन ० सा• गाथा २३० के समान है। क० पा० सु० पु.० ७४४ सूत्र २४-८५-८६ । ३. जयधवल मूल पृ० १६५६ । ४. जयववल मूल पृष्ठ १६५६-५७ ! क पा० सुत पू० ७४४ सूत्र ८७ से ८३ । ५. यह माथा ल० सा० गा० २३१ के समान है।