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गाया ६ ] क्षपणासार
[ अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर अन्तर करता है और वहीं पर चारित्रमोहकी प्रकृति योंका ययावसर संक्रामक होगा।
(चतुर्थगाथा) कषायों की क्षपणा करनेवाला किस-किस स्थिति और अनुभागविशिष्ट कौन-कौनसे कर्मोंका अपवर्तन करके किस-किस स्थानको प्राप्त कराता है, शेषकर्म किस स्थिति तथा अनुभागको प्राप्त होते हैं ? इस चतुर्थगाथाके द्वारा यह प्रश्न किया गया है कि स्थितिविशेषमें वर्तन करनेवाले कर्मों का अनुभागकाण्डकघात हो जानेपर अवशेष अनुभाग कितना रह जाता है ? यहां स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघातकी सूचना इस पृच्छा द्वारा की गई है । अध:प्रवृत्तकरण के चरमसम यतक स्थित के स्थिति काण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात सम्भव नहीं है, किन्तु अधःप्रवृत्तकरणके चरमसमयसे अनन्तरसमयमें अपूर्वकरणके प्रवेश हो जानेपर दोनों काण्डकघातकी प्रवृत्ति होती है।
शङ्का:--यदि ऐसा है तो अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी विशुद्धिकी प्राप्ति निरर्थक हुई, क्योंकि स्थिति व अनुभागकाण्डक घासरूप कार्यविशेषकी अनुपलब्धि है ।
समाधान:---ऐसी शंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्थिति व अनुभागघातके हेतुभूत अपूर्वकरण परिणामोंकी उत्पत्ति में ये (अधःप्रवृत्तिकरणके) परिणाम निमित्तरूपसे देखे जाते हैं । इसप्रकार इन चार मूल गाथाओंको विभाषामें अधःप्रवृत्तकरणकाल समाप्त हो जाता है।
अथानन्तर अपूर्वकरणका वर्णन करते हैं-- 'गुणसेढी गुणसंकम ठिदिखंडमसत्थगाण रसखंडं । विदियकरणादिसमए अण्णं ठिदिबंधमारवई ॥६॥३६७॥
अर्थः-द्वितीय अपूर्वकरणके प्रथमसमय में गुणधेणि, गुणसंक्रमण, स्थितिखण्डन और अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागखण्डन होता है तथा अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयमें जो स्थितिबन्ध होता था उससे पल्य के असंख्यातवेंभाग मात्र घटते हुए अन्य स्थितिबन्धको प्रारम्भ करता है, क्योंकि यहां एक स्थितिबंधापसरण होने के कारण इतने प्रमाण स्थितिबन्धको घटाता है।
१. जयघवल मूल पृ० १९४१ से १६४८ तक।
२. ल. सा. गा• ५३ के समान ।