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गाथा २० ]
क्षपणासार विशेषार्थ:-हजारों स्थितिबन्धापसरणके व्यतीत हो जानेपर अपूर्वकरणके सातभागोंमें से प्रथमभाग समाप्त होता है उस समय निद्रा और प्रचलाको बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । यह कथन अनुत्पादानुच्छेदको अपेक्षा है, किन्तु उपपादानुच्छेदकी अपेक्षा प्रथमभागके अन्तसमय में निद्रा-प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। प्रथमभागके समाप्त होते ही निद्रा और प्रचलाका गुणसंक्रमण होने लगता है, क्योंकि क्षपक या उपशमश्रेणिमें जिन अप्रशस्तप्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है उनकी गुणसंक्रमणके अतिरिक्त अन्य पर्याय सम्भव नहीं है । अपूर्वकरणकालके सातभागोंमेंसे छह भाग व्यतीत हो जाने पर परभवसम्बन्धी प्रकृतियोंकी बन्धसे व्युन्छित्ति हो जाती है।
शंका:-परभवसम्बन्धी प्रकृतियां कौन-कौनसी हैं ?
समाधान:-- देखगति, पन्दे दिगजाति मियिकशरीर, आहारकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैऋियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क (अगुरुलघु, उपघात, परधात, उच्छ्वास) प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर ये तोस प्रकृतियां परभवसम्बन्धी हैं।
शंकाः--इनको परमधिक संज्ञा क्यों है ?
समाधान:--परभवसम्बन्धी देवगति के साथ बन्धको प्राप्त होती हैं, अत: इनकी परभविक संज्ञा है। यशस्कोतिका बन्ध भी देवगति के साथ होता है और उसकी भी परभविक संज्ञा है, किन्तु उसको बन्धव्युच्छित्ति यहां नहीं होती, क्योंकि यशस्कीति के बन्धके साथ अपरितन विशुद्धि का विरोध नहीं है । यशस्कीतिका बंध सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके अन्तसमयपर्यन्त होता है उससे आगे इसके बन्धका अभाव है।
उसके बाद हजारों स्थितिबन्धापसरण हो जानेपर अपूर्वकरणका चरमसमय प्राप्त होता है । अपूर्वकरणफे चरमसमय में स्थित हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है उसी समय छह नोकषायकी उदयब्युच्छित्ति हो जाती है । उसके अनन्तर समयमें बादरसाम्पराय अर्थात् अनिवृत्तिकरणको प्राप्त हो जाता है ।
अब आगे अनिवृत्तिकरणका कथन करते हैंअणियदृस्स य पडमे अण्णं ठिदिखंडपहुदिमारबई । उत्रसामणा रिणवत्ती णिकाचणा तत्थ बोछिण्णा ॥२०॥४११॥