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विषय परिचय
लब्धिसार की प्रथम ८८ गाथानों में क्षयोपशम-विशुद्धि-देशना प्रायोग्य एवं करण रूप पांच लब्धियों का सविस्तर वर्णन करते हुए प्रथम जन सामियों का स्वरूप मानक-एक गाथा में ही कर दिया है। प्रायोग्य लब्धि के अन्तर्गत ३४ बन्धापसरण और उन अपसरणों में बन्ध से व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों का कथन १५ गाथानों में किया गया है। इसके पश्चात् सात गाथानों द्वारा प्रायोग्य लब्धि में उदय व सत्व योग्य प्रकृतियों का कथन किया है। तदनन्तर ५६ गाथाओं में करपलब्धि के विवेचन को प्रारम्भ करते हुए प्रध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण लब्धियों का कथन किया है। इसके पश्चात् गाथा १०६ तक उपशम सम्यक्त्व प्रादि के प्रकरण में होने वाले अनुभाग काण्डकादि कालों का अल्पबहुत्व तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरने प्रादि का सर्व कधन पाया जाता है। गाथा ११० से दर्शनमोहनीय कर्म को क्षपणा का कथन प्रारम्भ होता है उसके अन्तर्गत अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की विसंयोजना का कथन गाथा ११२-११६ तक किया गया है। तदनन्तर गाथा १६६ तक क्षायिक सम्यक्त्व का प्रकरणा है। १६७वीं गाथा से प्रारम्भ होकर गाथा १८८ तक देशसंयमलब्धि का कथन सविस्तर किया गया है। देश संयमलब्धि अधिकार के पश्चात् माथा १८६ से सकलसंयमलब्धि का वर्णन प्रारम्भ हुअा है। तदनन्तर गाथा २०५ से चारित्र मोहोपशामनाधिकार प्रारम्भ हप्रा है, उसके अन्तर्गत १४ गाथानों द्वारा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का कथन है। गाथा २२० से ३६१ तक श्रेण्यारोहण और श्रेण्यावरोहण की अपेक्षा उपशम चारित्र का सविस्तर कथन प्राचार्यदेव ने किया है। इस प्रकार लब्धिसार ग्रन्थ में सर्व ३६१ गाथाओं में पंच लब्धियों का पूर्ण विवेचन प्रस्तुत करने के पश्चात् ३६२ से ६५३ तक ३६१ गाथाओं द्वारा क्षपणासार में चारित्रमोहनीय फर्म की क्षपणा के सविस्तर कथन पूर्वक ज्ञानावरण, दर्शनावरण सौर अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों के क्षय का विधान बताते हए नाम-गोत्र-वेदनीय इन तीन प्रघातिया कर्मों के आय का विधान निरूपित किया गया है। इसके साथ ही केवली समुद्घात, योग निरोध, महन्त व सिद्ध भगवान के सुख का भी विवेचन भी प्रसंग प्राप्त होने से किया गया है।
इस प्रकार लब्धिसार-क्षपणासार में प्रतिपादित विषय का परिचय प्रति संक्षिप्त में दिया गया है विस्तृत विवेचन ग्रन्थ अध्येता स्वयं अध्ययन कर ग्रन्थ से जानने में सक्षम होंगे प्रत: प्रस्तावना में विस्तारपूर्वक विषय परिचय 'पिष्ट पेषण' के भय से नहीं दिया गया है । सब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ की प्रस्तुत टीका एवं उसके प्राधार
लब्धिसार की सिद्धान्त बोधिनी एवं क्षपणासार की कर्म क्षपणबोधिनी टीका, इस प्रकार लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ की नधीन टीका का यह नामकरण किया गया है। यद्यपि पंडित प्रवर टोडरमलजी की सुबोध हिन्दी टोका सहित लब्धिसार की संस्कृतवृत्ति युक्त लब्बिसार का प्रकाशन 'जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था' कलकत्ता से प्रकाशित हुया था जो इस समय उपलब्ध नहीं है । संस्कृत वृत्तिकार ने प्राय: जयधवल टीका का अनुसरण किया है। हिन्दी टीकाकार के समक्ष जयधवल टीका नहीं थी अतः पंडितजी ने संस्कृत वृत्ति का मात्र हिन्दी अनुवाद किया है। लब्धिसार का प्रकरण जयधवल पु. १२ व १३ में चरिणसूत्र समन्वित जयधवला टीका के हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित हो चुका है 1 हां! गाथा ३०० से ३६१ तक का प्रकरण, जिसमें उपशम श्रीशि से गिरने तथा मानादि कषायों व स्त्रीवेदादि सहित उपशम रिग पारोहण का कथन भी पाया जाता है