________________
उसका जयघवला टीका में जो वर्णन है वह प्रभी प्रकाशित नहीं है। कषायपाहड़ भाग १४ जो कि अभी प्रकाश्य है उसमें प्रकाशित होगा । अत: लब्धिसार को इस प्रस्तुत टीका में पंडित टोडरमल जी की हिन्दी टीका तथा संस्कृतवृत्ति के साथ-साथ ज.ध. पु. १२ व १३ प्राधार रही है, किन्तु गाथा ३०५ से ३६१ तक की टीका जय धवल मूल (फलटन से प्रकाशित) के प्राधार से लिखी गई है।
क्षपणासार की कोई संस्कृत टीका नहीं है। हां ! माधवचन्द्र विद्य देव द्वारा रचित संस्कृत क्षपणासार की दो प्रतियां जयपुर भण्डार से प्राप्त हुई थीं जो कि स्वतंत्र रचना है अतः वह स्वतंत्र कार्य की अपेक्षा रखता है । सम्भव है पं. टोडरमल जी के समक्ष यह क्षपणासार रहा हो जो उनको क्षपणासार टीका का अवलम्बन रहा हो। गाथा ४७३ की टीका में उन्होंने अपनी लधुता प्रगट करते हुए लिखा है कि-"इस गाथा का पर्थ रूप व्याख्यान क्षपणासार विष किछु किया नहीं और मेरे जानने में भी स्पष्ट न प्राया तातें इहाँ न लिख्या । बुद्धिमान होइ सो याका यथार्थ प्रथ होइ सो जानहू।" इन पंक्तियों के प्रकाश में मेरे अनुमान से एक तथ्य प्रगट होता है कि पंडित प्रवर टोडरमलजी के समक्ष क्षपणासार की हिन्दी टीका सहित कोई प्रति होना चाहिए। अन्यथा वे ऐसा क्यों लिखते कि इस गाथा का अर्थ रूप व्याख्यान 'क्षपरणासार विष किछु किया नाहीं । माघवचन्द्र विद्य देव द्वारा रचित क्षपणासार संस्कृत भाषा का स्वतंत्र ग्रन्थ है वह अथं रूप व्याख्यान (टीका) तो है नहीं । खैर ! जो भी हो यह है अनुसंधान का विषय । मेरे द्वारा अनुमानित पं टोडरमलजी के समक्ष विद्यमान क्षपणासार की भाषानुवादित उस टीका के कर्ता ने भी जयधवल मूल टीका का पाश्रय लिया है यह स्पष्ट है।
क्षपणासार की कर्मक्षपणबोधिनी नामा इस नवीन टीका को भी मैंने फलट न से प्रकाशित जयधवल मूल (शास्त्राकार) के प्राधार से ही लिखा है, क्योंकि क्षपणासार से सम्बन्धित इस विषय की जयधवला टीका हिन्दी अनुवाद सहित संभवतः १५-१६ वें भाग के रूप में मथुरा से अभी तक प्रकाशित नहीं हुई हैं प्रकाशनाधीन हैं । पास्म निवेदन
उक्त नवीन टीका करने की प्रेरणा मुझे श्रा फ. श्री श्रुतसागरजी महाराज से प्राप्त हुई। सन् १९६३ से तो मैं निरन्तर उनके सान्निध्य में जाता रहा है। इसी शृखला में सन् १६७१.७२ में त्रिलोकसार की नवीन टीका (प्राधिका विशुद्धमतोजी द्वारा लिखित) के वाचनावसर पर मुझे भी जाने का प्रसंग प्राप्त हया था। ६ वर्ष पश्चात सन १९७८ में पुनः गोम्मटसार कर्मकाण्ड की 'सिद्धान्त ज्ञानदीपिका' नामा नवीन हिन्दी टीका (प्रायिका भादिमतीजी विरचित) की याचना के अवसर पर प्रा. क. श्री के सान्निध्य का लाभ मिला और उस टीका के सम्पादनत्व का भार भी मुझ पर पाया। उक्त वाचना के अवसर पर ही जयपुर निवासी श्रीमान् रामचन्द्रजी कोठारी ने प्रा. के. श्री के समक्ष अपनी हार्दिक मनोभावना व लाडमलजी के माध्यम से व्यक्त की थी कि "लब्धिसारक्षपणासार की भी शुद्ध माधुनिक हिन्दी में नवीन टीका लिखी जानी चाहिए उसके प्रकाशन का अर्थ भार मैं स्वयं वहन करूंगा।" कोठारीजी की इस भावना को देखते हुए मुझे प्रेरणा मिली और उसी समय मैंने भा. क श्री को अपनी स्वीकृति प्रदान की थी। लगभग १ वर्ष के परिश्रम से मैं इस नवीन टोका को लिख पाया और इसकी याचना के लिए चातुर्मास प्रवास में मैं प्रा. क. श्री के सानिध्य में पहुंचा। वाचना के अनन्तर ही फिर मुझे गोम्मटसार जीवकाण्ड की नवीन टीका लिखने