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प्रस्तुत ग्रन्थ के टीकाकार
___ लवित्रसार-क्षपणासार करगानुयोग का एफ प्राकृतगाथाबद्ध ग्रन्थ है। इसमें कुल ६५३ गाधानों द्वारा कर्मसिद्धान्त का सूक्ष्म विवेचन किया गया है । इसमें सम्यग्दर्शन तथा सम्यकचारित्र की उत्पत्ति का दिग्दर्शन है। प्रपंच यह है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्व, क्षापिकसम्यवस्व, देशसंयमलब्धि [संयमासंयम], सकलसंयमलब्धि [सकल संयम या सकल चारित्र), चारित्र मोह की उपशामना, चारित्रमोह की क्षपणा, केवली-समुद्घात एवं योगनिरोध का इसमें करणानुयोग के अनुसार सूक्ष्म प्ररूपण किया गया है ।
इस ग्रन्थ की रचना श्री चामुण्डराय के प्रश्न के निमित्त से परमपूज्य नेमिचन्द्राचार्य द्वारा हुई। ग्रन्थराज श्री जयधवला इस ग्रन्थ के सृजन का मूल भाधार रहा है । श्री जयघवला कोई ६० हजार श्लोक प्रमाण माना जाता है, जो हिन्दी मनुवाद सहित कोई १५ अथवा १६ भागों में छपकर पूर्ण होगा। इसके १३ भाग तो छप चुके हैं। प्रवशिष्ट भाग छप रहे हैं इस जयधवल के लगभग एक तृतीय भाग के साररूप में लब्धिसार-क्षपणासार की रचना हुई है।
श्री परमपूज्य नेमिचन्द्राचार्य सिद्धान्त चक्रवर्ती म्यारहवीं शताब्दी के प्राचार्य थे। [ज ल. भाग १ पृष्ठ १८ ग्रन्थकारानुक्रमणिका] इनके गुरु प्रभयनन्दि थे। [प्रस्तुत ग्रन्थ, गा ६५२] ये [नेमिचन्द्राचार्य] वीरनन्दि, गुरु इन्द्रनन्दि एवं गुरु कनकनन्दि प्रादि मुनीश्वरों के समकालीन थे। [ल. सा. क्ष. सा. ६५२ एवं गो. क. ३६६] इस ग्रन्थ पर पूर्व में संस्कृतवृत्ति तथा हिन्दी में पण्डित प्रवर टोडरमलजी द्वारा टीका लिखी गई है।
इसी ग्रन्थ पर अभीक्ष्ण स्वाध्यायी श्रीमन्त सेठ रामचन्द्रजी कोठारी के द्वारा अभिव्यक्त मनोभावना के बल पर परमपूज्य श्रुतसागरजी महाराज को विशिष्ट प्रेरणा से पू गुरुवर्य स्व. रतनचन्द मुख्तार सा. ने प्रस्तुत हिन्दी टीका लिखी है । जिसका प्राधार मुख्यतः जयधबला रहा है । मैं इस अवसर पर प्रतिसंक्षेप में पूज्य गुरुवयं के बारे में कुछ लिखना प्रावश्यक समझता हूं
सहारनपुर शहर के बड़तल्लायादगार मोहल्ले में जुलाई १६०२ ईस्वी में श्री धवलकीतिजी के घर पर बरफीदेवी माता के गर्भ से प्रापका जन्म हुआ। विद्याध्ययन एवं बाल्यावस्था पार करके यथाकाल प्राप वकालात (मुख्तारी काम) करने लगे । वर्षों तक मुख्तारो का कार्य करके ३१ मई सन् ४७ को प्रापने वकालात का कार्य समग्ररूप से छोड़ दिया।