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सान्निध्य में जब पाप पाये थे उसी समय श्रीमान् सेठ रामचन्द्रजी कोठारी जयपुर निवासी को प्रवलतम प्रेरणा से लब्धिसार-क्षपणासार के प्रकाशन का निर्णय पं. रतनचन्द्रजी से ही नवीन टीका कराकर करने का हुअा था । तदनुसार एक वर्ष के निरन्तर अथक परिश्रम से स्व. मुख्तार सा. लब्धिसार और क्षपणासार को टीका करके चातुर्मास प्रबास में निवाई सन् १९७६ में पुन: प. पू. प्राचार्य कल्प श्रुतसागरजी महाराज के सान्निध्य में उपस्थित हुए । वाचना के पश्चात् चू कि पं. को स्वयं भावना थी कि पहले क्षपणासार का प्रकाशन हो क्योंकि इसकी टीका मैंने जयघवल की मूल प्राकृत टोका के उस भाग के प्राधार से की है जिसकी अभी तक हिन्दी टीका प्रकाशित नहीं हुई है । अतः उसी को पाण्डुलिपी का कार्य प्रारम्भ मानाशालाबार की गालिपि का पुननिरीक्षण भी उन्हीं ने कर लिया था । लब्धिसार की पाण्डुलिपि का वाचन उन्हीं के अनन्यतम शिष्य श्री जवाहरलालजी सिद्धान्तशास्त्री (भीण्डर) ने प्रा. क. श्री श्रुतसागरजी के समक्ष हो किया है । इस प्रकार पं. द्वारा विरचित टीका के प्रकाशन का संक्षिप्त इतिहास है।
अत्यन्त खेद है कि अनेक अपरिहार्य कारणों से हम स्व. मुख्तार साहब के इस परिश्रमपूर्ण कार्य को उनके समक्ष मूर्तरूप नहीं दे सके। त्रिलोकसार का एवं गोम्मटसार कर्मकाण्ड का प्रकाशन उनके समक्ष हो चुका था, किन्तु गोम्मटसार कर्मकाण्ड की प्रस्तावना, शुद्धिपत्र एवं परिशिष्ट प्रादि ही वे बना पाये थे बाइन्डिग सहित प्रति वे नहीं देख सके । लब्धिसार-क्षपरणासार की प्रस्तावना भी वे टीका वाचन के समय ही लिख चुके थे अतः उसी को यहां उन्हीं की भाषा में प्रकाशित किया गया है।
एक विशिष्ट बात और निवेदन कर देना चाहता हूं कि गोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीका वाचन के समय ही गोम्मटसार जीवकाण्ड की भी टीका लिखने का निर्णय हो चुका था, तदनुसार लब्धिसार-क्षपणासार को टीका वाचन के अनन्तर ही उन्होंने जीवकाण्ड की टीका को लिखना प्रारम्भ कर दिया था अथक परिश्रम करते हुए लिखी जाने वाली इस टोका को वे अपने मरण से दो दिन पूर्व तक लिखते रहे, किन्तु वे उसे पूरी नहीं कर पाये । अन्तिम ३७ गाथाओं को टीका भवशिष्ट रह गई थी जिसे उन्हीं की भावनानुसार उनके अनन्यतम शिष्य भीण्डर निवासी श्री जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री ने ही की। उस टीका की पाण्डुलिपि का कार्य चल रहा है शीघ्र ही उसके प्रकाशन के लिये भी ग्रन्थमाला प्रयत्नशील है । आशा है स्व. मुख्तार सा. की उक्त कृति का भी शीघ्र ही प्रकाशन प्रारम्भ किया जा सकेगा। अत्यन्त हर्ष का विषय है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में सम्पूर्ण पार्थिक सहायता इस ग्रन्थ के प्रकाशन में प्रधान प्रेरक श्रीमान् रामचन्द्रजी कोठारी ने ही प्रदान की है । भाप धार्मिक विचारों से युक्त नती श्रेष्ठो हैं, साथ अभीक्ष्ण स्वाध्यायी भी हैं । लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ प्रायको रुचिकर भी था इस ग्रन्थ का स्वाध्याय प्राप स्वयं भी दो-तीन बार कर चुके थे।