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वत्सल प्राचार्य श्री यतिवषभ ने उन गाथानों पर रिगसूत्रों की रचना की । कषायपाहड़ ग्रन्थ की रचना का मूलस्रोत दृष्टिवाद अंग के १४ पूर्व रूप भेदों में पांचवें पूर्व के बारह वस्तु अधिकारों में २० प्राभूत हैं, उन २० प्राभूतों में से तीसरा पेज्जदोस पाहुड़े है अर्थात् तृतीय प्राभूत को अवलम्बन कर ही कषायपाहु ग्रन्थ की रचना हुई है।
__इस नन्थ में १५ अधिकार है और उन पन्द्रह अधिकारों में मात्र मोहनीय कम सम्बन्धी कथन किया गया है शेष सात कर्म सम्बन्धी कथन नहीं पाया जाता है। पन्द्रह अधिकारों में से १० वें अधिकार में दर्शन मोह की उपशामना, ग्यारहवें अधिकार में दर्शन मोह की क्षपणा, बारहव अधिकार में संमयासंयम लब्धि, तेरहवें अधिकार में चारित्रलब्धि, चौदहवें अधिकार में चारिश्रमोह की उपशामना और पन्द्रह अधिकार में चारित्रमोहः को क्षपणा का विवेचन है । १० से १५ तक इन छह अधिकारों के णिसूत्र से श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त: चक्रवर्ती ने लब्धिसार-क्षपरणासार प्रन्थ की रचना की है।
जोव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल ये छह द्रव्य इस लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त हैं। पुद्गल द्रव्य की २३ वर्गणाएं हैं, जिनमें से प्राहारवर्गपा, तेजसवगंगा, भाषावगंणा, मनोवर्गरणा और कार्मणवर्गणा इन पांच वर्गणाओं को जीव अपनी योगशक्ति के द्वारा ग्रहण करता है। पुदगल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन-काय से युक्त जीव की कमों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति योग कहलाती है ।' कर्म वर्गगाएं पाठ प्रकार की हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनोय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें से जो ज्ञानावरणीय के योग्य द्रव्य है वही मिथ्यात्वादि प्रत्ययों के कारण पांच ज्ञानावरणीय रूप से परिणामन करता है अन्य रूप से परिणमन नहीं करता, क्योंकि वह अन्य के अयोग्य होता है। इसी प्रकार सभी कमों के सम्बन्ध में कहना चाहिए। अन्तर का अभाव होने से कामंगवगरणा पाठ प्रकार की हैं ऐसा उपदेश नहीं पाया जाता है। कर्म और प्रारमा का परस्पर संश्लेष सम्बन्ध होकर दो पने के त्याग पूर्वक एकरूपता हो जाना सो बन्ध है।
निश्चयनय में न बन्ध है न मोक्ष है, क्योंकि बन्ध व मोक्ष पर्याय हैं; और निश्चयनय पर्यायों को ग्रहण नहीं करता है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव ने समयसार ग्रन्थ में भी कहा है
गवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणमो दु जो भावो।
एवं भगति सुद्धं पाभो जो सो उ सो चेव ॥६॥ —निश्चय नय से जीव न तो अप्रमत्त (मुक्त) और न ही प्रमत्त (संसारी) होता है। एक ज्ञायक भाव है, वह वही है। प्रतः निश्चयनय में न संसार अर्थात् कर्मबन्ध है और न ही मोक्ष पर्थात् कर्मक्षय है। १. पुषस विभाइ देहोदयेस मण वपण काय जुतस्स । जोधस्स जा हुत्ती कम्मागम कारणं चोगो॥
२१६ गो, जी. का।। २. वारणावरणीयस्स माणि पाम्रोग्याणि प्रमाणितारिण चेव. मिच्छत्तानि पच्चएहि पंच पाणावरणीय
सहवेण परिणमति सल्वेष। कुदो ? अप्पासोमात्तादो। एवं सति कम्मा बत्तम्छ। प. पु. १४
३. संश्लेषलक्षणे बधे सति । स. सि. ५३२२ बंधो पाम बुभाव परिहारेण एयत्तावतो। . पु. १३ पृ.७।