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जीवन परिचय सेठ सा. श्री रामचन्द्रजी भीसा (बड़जात्या) कोठयारी-जयपुर
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श्री रामचन्द्रजी कोठ्यारी का जन्म चत्र शुक्ला नवमी (रामनवमी) सं. १९६१ में हुअा। भापके पिता श्री जोहरीलालजी कोठ्यारो थे। प्रापकं पूर्वज जयपुर राजघराने में कोठयारी पद को अलंकृत करते पाये थे, इसी कारण प्राप भी कोठचारी कहलाये। यद्यपि मापने राजघराने में सेवा नहीं की थी किन्तु वंशपरम्परागत राजकीय सेवा होने से सभी परिवार वाले कोठ्यारी कहलाने लगे। वैसे आप दि. जैन धर्मानुयायी खण्डेलवाल जाति में भीसा (बड़जात्या) गोत्र में उत्पन्न हुमे हैं ।
___ जब माप ७-८ महीने के ही थे उस समय भापके पिता श्री जोहरीलालजी का स्वर्गवास हो गया था। प्रापफे बड़े भाई श्री गुलाबचन्दजी कोठ्यारी थे किन्तु उन्होंने इनको पृथक कर छोटो अवस्था में ही अपना घर का भार वहन करने को मजबूर कर दिया । यद्यपि उस समय प्रापकी अवस्था छोटी ही यो तथापि साहस और पर्य ने इनका साथ नहीं छोड़ा और कुशाग्र बुद्धि के कारण तथा वाक् पटु होने से ग्राप अपने व्यवसाय में निपुरण हो गये । जो भी कारोबार किया सच्चाई और ईमानदारी से किया जिससे आपकी साख व प्रसिद्धि बाजार और व्यापार में प्रगाढ़ रूप से जम गई।
___ उस समय चांदी का व्यापार सट्टे के रूप में काफी जोरों पर था और राजमान्यता भी मिली हुई थी व इसके लिये बुलियन भी कायम हो चुकी थी । बड़े-बड़े व्यापारी वैध रूप से चांदी का सट्टा करते और काफी धन कमाते थे । इस व्यापार में इनको भी काफी लाभ हुआ। राद दिन दत्त वित्त होकर इस व्यापार में धन के साथ नाम भी कमाया, बुलियन के प्राप सम्माननीय सदस्यों की गिनती में प्राने लगे । यद्यपि भाज सट्टा बन्द हो गया और यह व्यापार मब नाममात्र को भी नहीं है फिर भी आप बुलियन में सम्माननीम पद को अलंकृत करते हैं।
मापकी प्रवत्ति धार्मिक रही है। सदा मन्दिरों और घामिक संस्थाओं में माना जाना, उनको चंदा देना. उनकी देखरेख में रुचि रखना तथा समय-समय पर उनके कार्यों में अार्थिक सहायता देना इनकी पामिक रुचि का परिचायक है। इसी के परिणाम स्वरूप प्रापको कई संस्थानों ने सम्माननीय पद देकर अपना गौरव माना है। श्री दिगम्बर जैन संस्कृत कालेज में मापने पूरा छात्रावास बनवाया जिसका उपभोग कालेज के पढ़ने वाले छात्र प्राज भी करते हैं पौर करते रहेंगे।
__ पापको शास्त्र पढ़ने का व्यसन है, इसी से प्रापको धार्मिक तत्वज्ञान तथा पौराणिक जैन साहित्य का मामिक शान है। छोटे दीवानजी के मन्दिर में प्रापने वर्षों शास्त्र प्रबचन किया है, जिससे सिद्ध होता है कि प्रापकी स्वाध्याय में काफी रुचि रही है ।