________________
निकाचनाकरण
निक्षेप
५५
परिभाषा प्रबद्ध का दो मावलियों द्वारा उपशम हो जाता है) ज. घ० १३/२८७ चरम पेरा विशेष हेतु ल० सा० पृष्ठ २०७ दखना चाहिये । जो कर्म उदयादि चारों के अयोग्य होकर (उदय, अपकर्षण, उत्कर्षण व संक्रमण) अवस्थान की प्रतिज्ञा में प्रतिबद्ध हैं, उनकी उस अमस्थान लक्षण पर्यायविशेष को निकाचना कहते हैं । ज० १० १३/२३१, ३० ६/२६९; प० ६/२३६ प्रादि उत्कर्षण मथवा अपकर्षण होकर कम परमाणुओं का जिन स्थितिविकल्पों में पतन होता है उनकी निक्षेप संज्ञा है। उत्कर्षण में अव्याघात दशा में जघन्य निक्षेप का प्रमाण एक समय (क. पा. सु० पृ. २१५) ज० घ०८/२६२ और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण उत्कृष्ट पाबाधा और एक समयाधिक प्रावली; इन दोनों के योग से हीन ७० कोटा-कोटी सागर है । व्याधात दशा में जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण पावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। (ल० सा गा ६१, ६२ एवं ज० ० ८/२५३; ज० १० ७/२५० तथा जाप०८/२६२) अपकर्षण में प्रयाघातदशा में जघन्य निक्षेप एक समय कम प्रावली का विभाग
और एक समय प्रमाण निषेक रूप होता है । ( ल* सा० ५६ ) तथा उत्कृष्ट निक्षेप "एक समय अधिक दो प्रावली" से हीन उत्कृष्ट स्थिति (७० कोड़ा कोड़ी सांगर) प्रमाण होता है । ल. सा. ५८ व्याघात दशा में उत्कृष्ट निक्षेप पन्त:
कोटा कोटीसागर प्रमाण होता है । ११ जो कर्म प्रदेशाम उदम में देने के लिये अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणमाने के लिये
शक्य नहीं वह निघत है । (धवल पु०९ पृ. २३५) मन्यत्र भी कहा है जो कर्म अपकर्षण और उत्कर्षण के प्रविरुद्ध पर्याय के योग्य होकर पुन: उदय और पर प्रकृतिसंक्रमरूप न हो सकने की प्रतिज्ञारूप से स्वीकृत है उसकी उस अवस्था को निघसीकरण कहते हैं। [(जय धवल १३/२३१) तथा षवल पु० १६ पृष्ठ
५१६ ] ३४ । अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय सम्बन्धी परिणामस्थान के अन्तर्मुहूर्त अर्थात्
अधःप्रवृत्तकरण काल के संपातवें भाग प्रमाण काल के जितने समय हैं, उतने खण्ड करने चाहिये, वही निबर्गणाकाण्डक है । विवक्षित प्रमय के परिणामों का जिसस्थान से भागे मनुकृष्टिविच्छेद होता है वह निर्वगणाकाण्डक कहा जाता है । (ज० १० १२/२३६)
निषत्तीकरण
निवंगरणाकाण्डक