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स्थितिकाण्डकघात
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क्षप०
४,१.
( २३ )
परिभाषा पर उत्तरकर्म प्रकृति स्वमुख से उदय में नहीं पाती; किन्तु स्तिबुक संक्रमण द्वारा उदयरूप स्वातातीय कर्म प्रकृति में संक्रमण हो जाता है। जैसे क्रोध के उदय के समय अन्य तीन (मान, माया, लोभ) कषायों का स्त्रमुख उदय न होकर स्तिदुक संक्रमण द्वारा कोषरूप संक्रमण हो जाता है और इसप्रकार उन तीन कपायों का द्रव्य कोष रूप फल देकर उदय में प्राता है। विवक्षित स्थिति समूह का घात करना धिति काण्डकघात है। यह एक अन्तर्मुहूर्त में निष्पन्न होता है । विवक्षित कर्म की स्थिति में से ऊपर की कुछ स्थिति समूह के द्रव्य को ग्रहण कर विशुद्धिवश मन्तमुहूर्त काल द्वारा नीचे के स्थिति समूह के परमाणुषों में मिला देना तथा ऊपर की स्थिति में स्थित सकस फर्म द्रव्य का प्रभाव कर देना स्थितिकाण्डक घात है । जितने काल में यह स्थितिघात का कार्य किया जाता है वह काल स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल कहलाता है तथा जितनी स्थिति का नारा करता है रिगति कायम: :.; बह दिलण्डकायाम कहलाता है। जैसे अपूर्व करण के प्रथम समय में जोव के स्थितिकाण्डक का प्रायाम उत्कृष्टतः सागरोपम पृथक्स्व प्रमाण होता है । अर्थात् प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण जीव स्थितिकाण्डक बात के लिये स्थिति समूह को ग्रहण करता हुआ उत्कृष्टतः इतनी स्थिति को घात के लिये ग्रहण करता है। तथा अन्तर्मुहूर्त में निष्पद्यमान इस स्थितिकाण्डक के प्रत्येक समय में जितना द्रव्य नीचे [ अधस्तन स्थितियों में शीत उदय में प्राने वाली स्थितियों में] देता है, उसे फाली कहते है । इसना विशेष है कि प्रामु कर्म का स्थितिकाण्डक बात नहीं होता। (ल. सा. गा० ७८; धवल ६/२२४) अपूर्वकरण के काल में संख्यात हजार स्थिति काण्डकघात होते हैं । इसीप्रकार अन्यत्र भी यथागम स्थितिकाण्डकघात का अस्तित्व जानना चाहिये । स्थितिकाण्डकघात के बिना कर्मस्थिति का घात असम्भव होता है। (चवल १२/४९) इसना विशेष है कि केवली समुद्घात के समय; ८ समयों में से लोकपूरा समुद्घात तक के ४ समयों में एक एक समय में एक एक स्थिति काण्डक घात होता है । यह माहात्म्य समुद्घातक्रिया का ही है। अन्यत्र एक समय में यह कार्य नहीं . होता। (क्षपणासार गा०२६५ पृ०२०२।। स्थितिबन्ध के अपसरण (क्रम से घटना) को स्थिति बन्घापसरण कहते हैं । (अपसरण = घटना) विशेष के लिये देखो लब्धिसार गा• ३९ तथा क्षपणासार
+स्थितिबंधापसरण
१.
गा०३६५ तथा ज.५० मूल पृ० १.५१