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शब्द
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परिभाषा
संक्रमण कहते हैं । ज० घ० १३/२०१६ क० पा०सु० पृ० ७०० टिप्पण ( यह नियम से उदयावली में होता है और अनुदय प्रकृति का होता है )
श्रन्यत्र भी कहा है --- प्रतुदी प्रकृति के दलिक का जो उदय प्राप्त प्रकृति में विलय होता है उसे स्तिबुक संक्रमण कहते हैं। गति, जाति आदि पिण्डप्रकृतियों में से जो अन्यतम प्रकृति उदय को प्राप्त है उस समान काल स्थिति वाली अन्यतम प्रकृति में अनुदय प्राप्त प्रकृतियों को संक्रान्त करा कर जो वेदन किया जाता है उसे तिबुक संक्रमण कहा जाता है। जैसे- उदय प्राप्त मनुष्यगति में शेष तीन नरक गति श्रादि का व उदय प्राप्त पंचेन्द्रिय जाति में शेष चार जातियों का । ( जनलक्षणावली भाग ३ पृ० ११७६ सम्पा० बालचन्द्र सि० शा० )
स्तिबुक संक्रमण होता है । उदयाचली से उदयरूप निषेक के अनंतर ऊपर के निषेक में अनुरूप प्रकृति के द्रव्य का उदय प्रकृतिरूप संक्रमण हो जाना स्सियुक संक्रमण है। जैसे नारकी के ४ गतियों में से नरकगति का तो उदय पाया जाता है; श्रन्म तीन गतियों का द्रव्य प्रतिसमय स्तिबुक संक्रमण द्वारा नरकगतिरूप संक्रमण होकर उदय में श्रा रहा है। कहा भी है
पिडगई जा उदयसंगमा तीए श्रणुदयगयान ।
संका मिऊ वेयइ जं एसो धिगसंकामो || पंचसं० सं०० ५० गतिनामकर्म की पिण्ड प्रकृतियों में से जिस प्रकृति का उदय पाया जाता है उसके प्रतिरिक्त ग्रन्थ तीन गतियों का द्रव्य प्रति समय उदयगति रूप संक्रमण करके उदग्ररूप निषेक में प्रवेश करता है ।
कहा भी है- उदयावली के अन्दर ही बाह्य स्तिबुक संक्रमण नहीं होता है
।
सप्तम नरक के नारकी के नरक गति के अन्तिम समय में अनन्तर अगले निषेक में अनुदयरूप तीन गति के द्रव्य का नरक गति रूप संक्रमण नहीं होगा, क्योंकि अगले समय में नरकगति का उदय नहीं होगा । किन्तु तियंच गति का उदय होगा । श्रतः गति के अन्तिम समय में उदयरूप निषेक से श्रनन्तर ऊपर के निषेक में जो द्रव्य नरकगति मनुष्यगति देवगतिरूप है वह स्तिबुक संक्रमण द्वारा तिच गतिरूप संक्रमण कर जायगा और तियंचगति रूप में उदय में भायगा । इसीप्रकार अन्यत्र भी लगा लेना चाहिये। ( रतन चन्द पत्रावली पत्र ७ )
श्रन्यत्र कहा भी है- द्रव्य, क्षेत्र, काल और मत्र का अनुकूल संयोग न मिलने
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