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लब्धिसार
[ माथा ३०४-३०५
स्वच्छ परिणामवाला होकर अवस्थित रहता है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तसे और अधिककालतक उपशम पर्यायका अवस्थान असम्भव है।
समस्त उपशान्तकाल में वह अवस्थित परिणामवाला होता है, क्योंकि परिणामों की हानि-वृद्धि की कारणभूत कषायोंके उदयका अभाव होनेसे अवस्थित यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमसे युक्त सुविशुद्ध वीतरागपरिणामके साथ प्रतिसमय अभिन्नरूपसे उपशांतकषायवीतरागके कालका पालन करता है ।
अथानन्तर उपशांतकषाय गुणस्थानका काल कहते हैं
अंतोमुहत्तमेत्तं उसंतकसायवीयरायद्धा । गुणसेडीदीहत्तं तस्सद्धा संखभागो दु ॥३०४॥
अर्थ-उपशांतकषायवीतरागका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उसके संख्यातवेंभागप्रमाण गुणणि आयाम है ।
विशेषार्थ - उपशांतकषायका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । इस उपशांतकषायकालके संख्यातवेंभागप्रमाण पायाभवाला' इस जीवके ज्ञानावरणादि कर्मों का गुणश्रेणि निक्षेप होता है । ऐसा होता हुआ भी अपूर्वकरणके प्रथम समयमें किये गये गलितशेष गुणश्रेरिण निक्षेपके इससमय प्राप्त होने वाले शीर्षसे संख्यातगुणा होता है ।
उक्त कथनका विशेष स्पष्टीकरण आगे करते हैंउदयादिअवठ्ठिदगा गुणसेडी दवमावि अवट्ठिदगं । पढमगुणसेढिसीसे उदये जेट्ट पदेसुदयं ॥३०५॥
अर्थ-उपशांतगोह कालमें उदयादि गुग्गश्रेणिका पायाम अब स्थित है और द्रव्य निक्षेप भी अवस्थित है । प्रथम गुणश्रेरिग (उपशांतमोहके प्रथम समय में की गई गुणश्रेणि) के शीर्षका उदय होनेपर ज्येष्ठ अर्थात् उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है।
१. यद्यपि यह उपशान्त कषाय जोव अवस्थित परिणामवाला होता है तो भी उपशान्तकषाय भावसे
अवस्थानका काल अन्तर्मुहुर्त मात्र ही है, क्योंकि उसके बाद उपशमपर्यायका प्रवस्थान (टिकाव)
असम्भव है । (ज. ध, मूल पृ. १८६२ एवं ध. पु. ६ पृ. ३१७) ज.ध. पु. १३ पृ ३२५-२७ । ३. क. पा. सु. पृ. ५०५, सूत्र २८८ ; ज. घ. मूल पृ. १८६६-६७; ध. पु. ६ पृ. ३१६ । ४. ज. ध पु. १३ पृ. ३२७ ।