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'न'
शब्द
उदी
उपयोग
उपशम चारित्र
पृष्ठ
उपसम-उपशामक
( दर्शनमोह की अपेक्षा )
उपममावली
करगोपशामना
२४९
३
७१
१६६
२०७
२४९
. ( ११ )
परिभाषा
भायाम | जहां उदयावलि के ऊपर प्रथम निषेक से अवस्थित गुणश्रेणी रचना हो तो वह उदयावलि बाह्य अवस्थित गुरवणी श्राय'म कहलाता है तथा वही उदय परवा समय से ही श्रेणी प्रायाम प्रारम्भ हो जावे तो वह गुएार्थणी
आवाम, उदयादि कहा जाता है ।
जैसे सम्यक्त्व की वर्ष स्थिति सत्कर्म से पूर्व उदमावलि बाह्य गलितावशेष गुणवर्ष स्थिति सस्कर्म से लगाकर ऊपर सर्वत्र उदयादि यवस्थित
ी थी, किन्तु गुणी आयाम है ( पृ० १११-१२० )
ऐसे ही उतरने वाला मायावेदक जीव उदयरहित लोभश्य का द्वितीयस्थिति से श्रपकर्षण करके उदयावलि बाह्य प्रवस्थित गुण श्रेणी करता है । (ल-सा० ३१७ ) सम्यक्त्व प्रकृति के अन्तिम काण्डक की प्रथम फालि के पतन समय से लेकर द्विचरम फालि के पतन समय पर्यन्त उदयादि गलितावशेष गुण श्रेणी प्रायाम रहता है । ल० सा• गा० १४३ पृ० १३० इसप्रकार पारों प्रकारों की गुणवरियों के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं । अन्यत्र भी गुणश्रेणी - विन्यास यथा प्रागम जानना चाहिए। विशेष इतना कि श्रायु कर्म का होता । शेष सब कर्मों का होता है ।
गुणश्र ेणी निक्षेप नहीं
(देखो करणीपशामना में )
जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है। अर्थ के ग्रहण रूप आत्मपरिणाम को भी उपयोग कहते हैं । उपयोग के साकार और अनाकार के भेद से दो प्रकार हैं । इनमें से साकार तो ज्ञानोपयोग और अनाकार दर्शनोपयोग है । करण परिणामों के द्वारा निःशक्त किये गये दर्शनमोहनीय के उदयरूप पर्याय के बिना अवस्थित रहने को उपशम कहते हैं। उपसम करने वाले को उपशामक कहते हैं । ज० ० १२/२८०
सकल चारित्र मोहनीय के उपग्राम से जो चारित्र उत्पन्न होता है उसे उपशमचारित्र कहते हैं । त० सू० २/३
जिस भावली में उपशम करना पाया जाय उसे उपशमावली कहते हैं ।
प्रशस्त मौर प्रशस्त परिणामों के द्वारा कर्म प्रदेशों का उपशान्त भाव से रहना करगोपशामना है । अथवा करणों की उपशामना को करगोपशामना कहते हैं । अर्थात् निर्धात्ति, निकाचित आदि करणों का प्रभास्त उपशामना के द्वारा उपशान्त करने को करोपशामना कहते हैं । क० पा०सु० पृ० ७०८