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लब्धिसार
[ गाथा ३०७ अवधिज्ञानी जीवमें अवधिज्ञानावरणका अनुभागोदय अवस्थित होता है। उससे अन्यत्र अवधिज्ञानावरणका रसोदय छहवृद्धियों, छह हानियों और अवस्थानरूपसे अनवस्थित होता है । इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिए। शेष ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी अपेक्षा भी आगमानुसार कथन करना चाहिए।
जो नामकर्म और गोत्रकर्म परिणाम प्रत्यय होते हैं उनका अनुभागोदयकी अपेक्षा अवस्थितवेदक होता है । बेदी जाने वाली नामकर्मको प्रकृतियोंको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि नहीं वेदी जाने वाली नामकर्मकी प्रकृतियोंका अधिकार नहीं है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मण शरीर, छहसंस्थानों में से कोई एक संस्थान, प्रौदारिक शरीराङ्गोपाका तीन संहानमें से कोई एम संहान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, उपधात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगतियों में से कोई एक, श्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर-दुःस्वरमें से कोई एक, प्रादेय, यश कीति, सुभग, निर्माण ये नामकर्मको वेदी जानेवाली प्रकृतियां हैं। इनमें से तेजसशरीर, कार्मण शरीर, वर्ण, गंध, रस, शीत-उष्ण-स्निग्ध-रुक्ष स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशःकीति और निर्माण नामकर्म परिणामप्रत्यय हैं । गोत्रकर्ममें उच्चगोत्र परिणामप्रत्यय है । इसप्रकार परिणामप्रत्यय नाम व गोत्रकर्मकी उक्त प्रकृतियोंकी अनुभागोदयकी अपेक्षा अवस्थित वेदना होती है, क्योंकि अवस्थित परिणामविषयक होने पर दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है, परन्तु यहां वेदी जानेवाली भवप्रत्यय शेष सातावेदनीय आदि अघाति प्रकृतियोंकी छह वृद्धि और छह हानिके क्रमसे अनुभागको यह वेदता है।
इसप्रकार उपशान्तकषाय गुणस्थानके अन्तिमसमयपर्यन्त चारित्रमोहकी इक्कीस
प्रकृतियोंका उपशम विधान सम्पूर्ण हुआ।
१. ज. प. पु. १३ पृ. ३३०-३३४ । क. पा. सु. १.७०७ ।