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सब्धिसार ।
[ गाथा ३०१ . विशेषार्थ-सुक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे लेकर सभी कृष्टियों के प्रदेशज को गुणश्रेरिगरूपसे उपशमाता है अर्थात् प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कृष्टियोंके प्रदेशपूजको उपशमाता है। सर्वप्रथम समयमें सर्वष्टियोंमें पल्योपमके असंख्यातवेंभागका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होता है उतने प्रदेशपुजको उपशमाता है । पुनः दूसरे समय में सर्वष्टियोंमें पल्यके असंख्यातवेंभागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध पावे उतने प्रदेशपुजको उपशमाता है, किन्तु परिणामोंके माहात्म्यसे प्रथम समयमें उपशमाए गये प्रदेशपुजसे असंख्यातगुरणे प्रदेशपुजको दूसरे समयमें उपशमाता है । इसार सूक्ष्मसान्धरायिक गुणस्थानके अन्तिम समय होने तक सर्वत्र गुणश्र णिके क्रमसे उपशमाता है।
केवल कृष्टियों को ही प्रसंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे नहीं उपशमाता है, किन्तु जो दो समयकम दो पाबलिप्रमाण स्पर्धकगत नवकसमयप्रबद्ध है उन्हें भी असंख्यातगुणित थे णिरूप्से उपशमाता है । बादरसाम्परायके अन्त समयमें स्पर्धकगत उच्छिष्टावलि शेष रह गई थी वह यहांपर कृष्टिरूपसे परिणमकर स्तिबुकसंक्रमके द्वारा विपाकको प्राप्त होती है । अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिकके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया काँका जघन्य स्थितिबन्ध होता है जो अन्तर्मुहूर्तप्रमारण है । नाम व गोत्रका जधन्य स्थितिबन्ध सोलहमुहर्तप्रमाण है, वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिवन्ध चौवीस मुहूर्तप्रमाण होता है, क्योंकि क्षपकके होनेवाले बारह मुहूर्तप्रमाण अन्तिम स्थितिबन्धसे यह दूने प्रमाण को लिये हुए होता है । यहाँ सभी कर्मोके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबंध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धकी व्युच्छित्ति हो जाती है । इतनी विशेषता है कि वेदनीयकर्मका प्रकृतिबन्ध, उपशान्तकषाय गुणस्थानमें भी होता है, क्योंकि प्रकृतिबन्ध योगके निमित्तसे होता है इसलिये सयोगकेवलीके अन्तिम समयतक उक्त बन्ध सम्भव है।
आगे २ गाथाओं में पूर्वोक्त कथनका उपसंहार करते हैंपुरिसादीणुच्छिट्ट समऊणावलिगदं तु पच्चिहिदि । सोदयपढमछिदिणा कोहादीकिट्टियंताणं ॥३०॥
अर्थ--पूरुषवेदादिका एकसमयकम प्रावलिप्रमाण निषेकोंका द्रव्य उच्छिष्टावलिरूप है वह द्रव्य क्रोधादि सूक्ष्मकृष्टि पर्यन्तके उदयरूप निषेकसे लेकर प्रथमस्थिति
१. ज. घ. पु. १३ पृ. ३२३-३२६ । क. पा. सु. पृ. ७०५; ध. पु. ६ पृ. ३१६ ।