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गाथा ३०५ ]
लब्धिसार
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विशेषार्थ-अवस्थित परिणाम होनेसे अनवस्थित आयामरूपसे तथा अनवस्थित प्रदेशजके अपकर्षणरूपसे गणश्रेणि विन्यास सम्भव नहीं है। इसलिये पूरे उपशांतकालके भीतर किये जाने वाले गुणश्रेणिनिक्षेप के आयामकी अपेक्षा और अपकर्षित किये जाने वाले प्रदेश पूजकी अपेक्षा वह ( गुणथोणि ) अवस्थित होती है । अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयतक मोहनीयके अतिरिक्त शेष कर्मोका गुणश्रेणिनिक्षेप उदयावलिके बाहर गलितशेप होता है, परन्तु उपशान्तकषायके प्रथम समयसे लेकर उसीके अन्तिम समयतक गुणश्रेणिनिक्षेप उदयसे लेकर अवस्थित पायामबाला और अवस्थित प्रदेशोंकी रचनाको लिये हुए होता है। प्रथम समयमें गुणश्रेणिका जितने आयाम लिये आरम्भ किया उतने प्रमाण सहित हो द्वितीयादि समयों में उतना ही आयाम रहता है, क्योंकि उदयालिका एक समय व्यतीत होने पर उपरितन स्थितिका एक समय मुणवेरिणमें मिल जाता है। उपशान्तमोहके प्रथम समय में जितना आकर्षित करने, गुदाई णिमें दिगा उतना ही प्रतिसमय दिया जाता है, इसलिए अपकर्षितद्रव्यका प्रमाण भी अवस्थित है।
__उपशान्तकषायके प्रथम समयमें निक्षिप्त गुणश्रेणिनिक्षेपको अनस्थिति, वह प्रथम गुणणिशीर्ष है। उस प्रथम गुणरिणशीर्षके उदयको प्राप्त होने पर ज्ञानावरणादि कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, क्योंकि वहां एक पिण्ड होकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गुणश्रेणि गोपुच्छाओंका उदय होता है। सरल कथन इसप्रकार है-प्रथम समयवर्ती उपशांतकषायका गुणश्रेणिशीर्ष वहां अविनष्टरूपसे उपलब्ध होता है । द्वितीय समयवर्ती उपशांतकषायकी भी द्विचरम गुणवेणि गोपुच्छा वहां पर है । तृतीय समयवर्ती उपशांतकषायकी त्रिचरम गुणश्रेणि गोपुच्छा वहांपर उपलब्ध है ! इसप्रकार क्रमसे प्रथम समयमें किये गये गुणश्रेणि निक्षेपके आयाम प्रमाण ही गुणश्रेणि गोपुच्छाएं वहां पर (प्रथमगुणश्रेरिण शीर्ष में) पाई जाती हैं । इस कारण दूसरे स्थानको छोड़कर यहीं पर ( प्रथम गुणश्रेणिशीर्षके उदयकाल में ) उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । यद्यपि अगले समयसे लेकर उपशांतकषायके अन्तिम समयतक इतनो ही गुणश्रेणि गोपुच्छाएं प्राप्त होती हैं, किन्तु वहां पर उन स्थिति विशेषोंमें प्रकृति गोपुच्छा की अपेक्षा क्रमसे एक-एक गोपुच्छा-विशेष (चय) की हानि पाई जाती है । इसलिये गोपुच्छा विशेष (चम) के लाभको लक्ष्यकर यथानिर्दिष्टस्थान ही उत्कृष्ट प्रदेशोदयका स्वामित्व कहा गया है । प्रकृति गोपुच्छा विशेष लाभकी दृष्टिसे यदि यह कहा जावे कि अपूर्वकरणके