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१ गाथा १६३-१६४
सस्थान षट्स्थानपतित सकलसंयमलब्धिस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं? । सकलसंयमसम्बन्धी प्रतिपातादि मेवोंको बताते हुए प्रतिपाद भेवस्थानों का कथन करते हैं
तत्थ य पडिवाद्गया परिवज्जगयात्ति अणुभयगयाति । उवरुवरि लखिठाणा लोयाणमसंखचट्ठाणा ।।१९३।। परिवादगया मिच्छे अयदे देसे य होंति उवरुवरिं । पत्तेयमसंखमिदा लोयाम संखवठाणा
॥ १६४॥
अर्थ - ( १ ) प्रतिपातगत ( २ ) प्रतिपद्यमानगत ( ३ ) अनुभयगत । ये तीनों * लब्धिस्थान उपर्युपरि हैं तथा असंख्यातलोक षट्स्थानपतित प्रमाण हैं ।
संयमसे मिथ्यात्व, प्रसंयम व देशसंयमको गिरने वाले संयत के ये तीनों प्रतिपातस्थान उपर्युपरि प्रत्येक असंख्यातप्रमाण हैं तथा प्रत्येक में असंख्यातलोक षट्स्थानपतित वृद्धि होती है ।
विशेषार्थ – जिस स्थान से नीचे के गुणस्थानों में गिरता है, इसप्रकार प्रतिपात शब्दकी व्युत्पत्ति के कारण प्रतिपातस्थान कहा गया है। वे मिध्यात्व प्रतिपात, असंयम सम्यक्त्वप्रतिपात और संयमासंयम ( देशसंयम ) प्रतिपातको विषय करनेवाले होने से प्रतिपातगत स्थान तीनप्रकारके होकर प्रत्येक जघन्य लब्धिस्थानसे लेकर उत्कृष्ट लब्धिस्थानतक षट्स्थानपतित वृद्धि क्रमसे अवस्थित असंख्यात लोकप्रमाण हैं । उनमें से मिथ्यात्वादिमें गिरनेवाले सर्वोत्कृष्ट संक्लेशयुक्त संयतके जघन्य प्रतिपात लब्धिस्थान होते हैं तथा तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेश परिणामवालेके उत्कृष्ट प्रतिपात लब्धिस्थान होते हैं । संयमको उत्पन्न करता है इसलिए उत्पादक अर्थात् प्रतिपद्यमान यह संज्ञा है । मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि व देशसंयत (मनुष्य) तत्प्रायोग्य विशुद्धि के साथ संयमको ग्रहण करनेके प्रथम समय में जघन्यस्थान होता है । तथा सर्वविशुद्ध संयतके उत्कृष्ट होता है । मध्यम भेदरूप प्रतिपद्यमान स्थान तो षट्स्थानपतित वृद्धिरूपसे अवस्थित असंख्य लोकप्रमाण हैं । प्रतिपात और प्रतिपद्यमान स्थानोंके अतिरिक्त शेष चारित्रलब्धिस्थान अनुभयस्थान हैं ।
ज. ब. पु. १३ पृ. १७६ ।
ध. पु. ६ पृ. २८३ ।
३. ज.ध. पु. १३. १७६-७७ ।
लविघसार
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