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लब्धिसार
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अब सात गाथाओं में उन प्रतिपातादि स्थानोंका विशेष कथन करते हैंपरिमे गद्दादीसमये पडित्राददुगमणुभयं तु । तम् उवरिमगुणगादिमुहे य देतं वा ॥१६८॥ पडिवादादोतिदयं उवरुवरिम संख लोग गुदि कमा । अंतरकरुपमाणं असंखलोगा हु दे वा ॥ १६६॥ मिच्ददेस भिगणे पडिवादद्वारा वरं अवरं । तप्पा उग्गकि लिट्ले सिध्य किलिट्ठे कमे चरिमे ॥२०० || पडिवज्जजहरुदुगं मिच्छे उक्करसजुगलमविदेसे । उवरि सामाड़गं तम्मज्मे होति परिहारा ॥ २०१ ॥ परिहारस्ल जगणं सामायियदुगे पडंत चरिम म्हि | सज्जेठ सठाणे सव्वत्रिसुद्धस्त तस्सेव ॥ २०२ ॥ सामयियदुगजद्दरां श्रघं श्रयिहिखवगचरिमहि |
रिमणिय हिस्सुवरिं पडत सुहुमस्स सहुमवरं ।। २०३॥ खत्रगसुमस्त चरिमे वरं जङ्गाखादमोघजेठं तं । परिवाददुगा सच्चे सामाइयछेदपविद्धा ॥२०४॥
गाय १६८ - २०४ ]
अर्थ - संयमसे गिरते हुए चरम समय में और संयम को ग्रहण करते समय प्रथम समय में क्रम से प्रतिपात और प्रतिपद्यमान ये दो स्थान होते हैं तथा इनके मध्य में अथवा ऊपरके गुणस्थानके सम्मुख होनेवाले जीव के जो अनुभव स्थान होता है वह देशसंयत के समान ही यहां भी जानना चाहिये ।। १६८ ।।
प्रतिपात आदि तीन प्रकार के स्थान अपने-अपने जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त ऊपरऊपर प्रसंख्यात लोकगुरो क्रम से युक्त हैं । उन ग्रहों में प्रत्येकके असंख्यात लोक प्रमाण बार षट्स्थानवृद्धि देशसंयत के समान जानना । १६६॥
प्रतिपातस्थान तो मिथ्यात्व असंयम और देशसंयमके सम्मुख होनेकी अपेक्षा तोन भेद वाला है । उसमें भी जघन्यस्थान संयमके चरम समय में तीव्रसंक्लेशवाले के