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लब्धिसार
[गाथा २४७
विशेषार्थ-चारित्रमोहनीयकर्मकी २१ प्रकृतियोंका अन्तरकरण करने के लिए अन्तरायामसे उत्कीरित द्रव्यको अन्तरायाममें नहीं देता है, किन्तु जो प्रकृतियां बन्धउदय की अपेक्षा उभयरूप हैं ऐसी पुरुषवेद व अन्यतर संज्वलनकषायकी अन्तर सम्बन्धी स्थितियों में से उत्कीरण होने वाले प्रदेशपुञ्जको श्रागमके अनुसार अपनी प्रथम स्थिति में निक्षिप्त करता है और प्रबाधाको छोड़कर द्वितीयस्थितिमें भी निक्षिप्त करता है, किन्तु अन्तर सम्बन्धी स्थितियों में निक्षिप्त नहीं करता, क्योंकि उनके कर्मपुञ्जसे वे स्थितियां रिक्त होनेवाली हैं। जबतक अन्तर सम्बन्धी द्विचरमफाली है तबतक स्वस्थान में भी अपकर्षण सम्बन्धी अतिस्थापनावलिको छोड़कर अन्तर सम्बन्धी स्थितियों में प्रवृत्त रहता है ऐसा कितने ही आचार्य व्याख्यान करते हैं । यह अर्थ सर्व विकल्पों में जानकर बतलाना चाहिए। जो कर्म न बंधते हैं और न वेदे जाते हैं ऐसी प्रप्रत्याख्यानावरणादिकषाय और हास्यादि छह नोकषायके उत्कीररण होनेवाले प्रदेश पुञ्जको अपनी स्थितियों में नहीं देता है, किन्तु बंधनेवालो प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिमें बन्धके प्रथम निषेकसे लेकर उत्कर्षण द्वारा सींचता है । बंधनेवाली और नहीं बंधनेवाली जिन प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति है उनमें यथासम्भव आपण प्रकृति द्वारा सींचता है, परन्तु स्वस्थान ( अन्तरायाम ) निक्षिप्त नहीं करता । जो कर्मप्रकृतियां बंधती नहीं, किन्तु वेदी जाती हैं ऐसो स्त्रीवेद व नपुंसक वेदरूप प्रकृतिको अन्तर सम्बन्धी स्थितियों के प्रदेश पुजको ग्रहणकर अपनी-अपनी प्रथम स्थिति में अपकर्षण संक्रमद्वारा देता है । उदयको प्राप्त संज्वलनकषायोंकी प्रथमस्थिति में अपकर्षण-परप्रकृति संक्रमण द्वारा आगमानुसार निक्षिप्त करता है तथा बन्ध की द्वितोयस्थिति में उत्कर्षणकर सिंचित करता है । जो कर्म केवल बंधते ही हैं, वेदे नहीं जाते, ऐसे परोदयविवक्षामें पुरुषवेद और अन्यतरसंज्वलनकी अन्तर सम्बन्धी स्थितियों में से उत्कीर्ण होने वाले प्रदेशपु जक । उत्कर्षरणवश अपनी द्वितीयस्थिति में सञ्चार विरुद्ध नहीं है । उदय सहित बंधनेवाली प्रकृतियोंकी प्रथम और द्वितीय स्थितियों में तथा अनुदयरूप बंधनेवाली प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थिति में संचार विरुद्ध नहीं है' |
इस क्रम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण फालिरूप से प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिद्वारा उत्कीर्ण होने वाला अन्तर अन्तिमफालिके उत्कीर्ण होनेपर अन्तरकरण करनेका कार्य समाप्त हो जाता है, क्योंकि अन्तर सम्बन्धी अन्तिमफालिका पतन हो जानेपर अंतर
ज. घ. पु १३ पृ. २६० ।