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गाथा २८६ ] लब्धिसार
[ २३३ अर्थ-जघन्यकृष्टि में बहुत द्रव्य दिया जाता है, उससे आगे अन्तिमकृष्टि पर्यन्त विशेष हीनरूपसे द्रव्य दिया जाता है। पूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणामें अनन्तगुणादीन द्रव्य दिया जाता है उससे ऊपर विशेषहीन क्रमसे द्रव्य दिया जाता है, किन्तु पूर्वकृष्टिको प्रथमकृष्टिमें जो द्रव्य दिया जाता है वह अपूर्व अन्तिमकृष्टिमें दिये गये द्रव्यसे असंख्यातवें भाग और अनन्तवें भागहीन है, क्योंकि एक अधस्तनकृप्टिका द्रव्य ब उभयद्रव्य विशेषसे हीन है।
विशेषार्थ-प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये समस्त प्रदेशपुञ्जके असंख्यातवें भागको ग्रहणकर कृष्टियोंमें निक्षिप्त करता हुआ जघन्यकृष्टिमें बहुत प्रदेशपुज देता है। उससे अनन्तर उपरिम दुसरी कृष्टिमें प्रदेशज विशेषहोन देता है। दो गुणहानिके प्रतिभागके अनुसार अनन्तवें भागप्रमाण बिशेषहीन देता है । इसप्रकार इस प्रतिभागके अनुसार उत्तरोत्तर अनन्तर पूर्वकृष्टिके प्रदेशपुञ्जसे विशेष हीन करके अन्तिमकृष्टिके प्राप्त होने तक विशेष हीन प्रदेशपुजको देता है। इतनी विशेषता है कि परम्परोपनिधाकी अपेक्षासे भी गणना करनेपर प्रथमकृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुञ्जसे अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त प्रदेशपुञ्ज अनन्तवां भाग हीन ही होता है, क्योंकि कृष्टियोंका आयाम एक स्पर्धक की वर्गणाओंके अनन्तवें भागप्रमाण है । पुनः अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुजसे ऊपर जघन्य स्पर्धक की आदि वर्गरगामें अनन्तगुरणे हीन प्रदेश पुञ्ज को देता है । ( विशेष कथनके लिये ज. प. पु. १३ पृ. ३११ देखना चाहिए। )
प्रथम समयमें अपकर्षित द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यको अपकर्षित कर द्वितीय समयमें पूर्व-अपूर्व कृष्टियोंमें सिंचन करता हुआ द्वितीय समयमें तत्काल रची जानेवाली अपूर्व कृष्टियोंकी जो आदि जघन्यकृष्टि है उसमें प्रथम समयकी अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुजसे असंख्यातगुणे पुजको देता है । इस आदि जघन्यकृष्टिकी अपेक्षा दूसरी अपूर्वकृष्टि में अनन्तवेंभाग हीन देता है । इसप्रकार अपूर्वकृष्टियों में जो अन्तिमष्टि है वहां तक इसी क्रमसे द्रव्य देते हुए ले जाना चाहिए। उसके बाद प्रथम समय में रची गई पूर्वकृष्टियों में जो जघन्य कृष्टि है उसमें विशेष हीन अर्थात असंख्यातवेंभाग और अनन्तवैभागप्रमाण कम देता है, क्योंकि प्रथम समयमें पूर्व कृष्टियोंमें निक्षिप्त द्रव्यसे दूसरे समयमें निक्षिप्त किया जानेवाला द्रव्य अपकर्षित किये गये द्रव्यके माहात्म्यवश असंख्यातगुणा होता है । इसलिये पूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि में पहलेका अवस्थित द्रव्य इस समय सिंचित किये जाने वाले द्रव्यके असंख्यातवेंभागप्रमारण होता है। अतः