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गाथा २५६ ] लब्धिसार
[ २०५ अपूर्व अनुभागकांड का प्रारम्भ करता है, परन्तु मोहनीयक का यहां स्थितिधात और अनुभागघात नहीं है । ज्ञानावरणादिकर्मोके असंख्यातगुण हानिरूपसे और बंधनेवाली मोहनीयकर्मको प्रकृतियोंका संख्यातगुण हानिरूपसे अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है । जिसप्रकार असंख्यातगणी श्रेणिरूपसे नपुसकवेदको उपशमाया है उसीप्रकार प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणिरूपसे स्त्रीवेदको उपशमित करता है ।
अथानन्तर स्त्रीत्रेदके उपशमम कालमें होने वाले कार्य विशेष को बताते हैं
थीयद्धा संखेज्जदिभागेपगदे तिघादिठिदियंधो। संखतुवं रसबंधो केवलणाणेगठाणं तु ॥२५॥
अर्थ-स्त्रीवेदके उपशानेके कालके संख्यातवें भाग व्यतीत हो जाने पर तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष प्रमाण होता है और केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरणके अतिरिक्त तीन घातिया कर्मोकी शेष प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध एक स्थानीय (लता रूप) होता है।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदके उपशमानेके अन्तमहतंप्रमाण कालका संख्यातवांभाग व्यतीत हो जानेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका स्थितिबन्ध असंख्यातवर्षसे घटकर संख्यात हजार वर्षप्रमाण हो जाता है, परन्तु तीन अघातिया कर्मों का स्थितिबन्ध संख्यात वर्षप्रमाण नहीं होता, क्योंकि धातिया कोके बहुत अधिक स्थितिबन्धापसरणले समान अघातिया कर्मों का बहुत अधिक स्थितिबंधापसरण सम्भव नहीं है।
जिस समय इन तीन धातियाकर्मोंका संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ हुआ उसी समय केदलज्ञानावरणको छोड़ कर ज्ञानावरणकी शेष चार प्रकृतियोंका, केवलदर्शनावरणके बिना दर्शनावरण को चक्षु-प्रचक्षु और अवधिदर्शनावरण तथा अन्तरायकर्मकी सभी पांचों प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध देशघातिरूप द्विस्थानीयसे घटकर लतारूप एक स्थानीय होने लगता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ होने पर असंख्यातगुणी हानि होना असम्भव है । अतः जो अन्य स्थितिबन्ध होता है वह अपने से पूर्व स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा हीन
१. ज.ध. पु. १३ पृ. २७८-७६ ।