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गाथा २३५-२३६ ]
लब्धिसार
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विशेषार्थ-अनन्तर पूर्व प्ररूपित अल्पबहुत्व बिधिसे बहुत हजार स्थितिबन्धापसरण व्यतीत होनेपर मोहनीयकर्मको स्थितिका विशेष घात होने के कारण बहुत अधिक घटनेवाले मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध एक बार में सबसे अल्प हो जाता है। उससे नाम व गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध प्रसंख्यातगुणा होता है, उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणा होता है'।
अब अन्य क्रमका निर्देश करते हैंतेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वेयरगीयहेट्ठादु । तीसिय घादितियाो असंखगुणहीणया होति ॥२३५॥
अर्थ-उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर ज्ञानाबरणादि तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध, वेदनीयकर्मके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा हीन हो जाता है।
विशेषार्थ-पहले वेदनीयकर्मके स्थितिबन्ध सदश ज्ञानावरणोय, दर्शनावरणीय, अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध था जो विशेष घात होनेके कारण एक बारमें उससे असंख्यातगुणा हीन होकर नीचे निपतित हो जाता है । यहां पर अल्पबहुत्व इसप्रकार है-मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध अल्प है । उससे नाम और गोत्रकर्मोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणा है उससे ज्ञानावरणोय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनों ही कर्मोंका स्थितिबन्य परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणा होता है । उससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, क्योंकि जिसप्रकार घातिकर्मो का विशुद्धिके वश विशेषघात होता है उस प्रकार इस अधातिकर्मका विशुद्धिके वश बहुत स्थितिबन्धापसरण सम्भव नहीं है, वेदनीयकर्मके स्थितिबन्धसे तीनों ही कर्मोका घटता हुआ स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहीन होता है या विशेष हीन होता है ऐसा कोई विकल्प नहीं है, किन्तु एकबार में वह असंख्यातगुणा हीन हो जाता है ।
पुनरपि क्रमभेन को दिखाते हैंतत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठादु । तीसिय घादितियामो भसंखगुणहीणया होति ॥२३६॥
१. ज. ध. पु. १३ पृ. २४४; क. पा. सुत्त पृ. ६८७ ।