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लब्धिसार
[ गाथा २०४ ००००००००००००००००० । अन्तर । सूक्ष्मसाम्परायसंयमीके ये संयमस्थान । हैं । उससे सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतका जघन्य प्रतिपातस्थान अनन्तगुणा है । वह किसके होता है ? अनिवृत्तिकरण के अभिमुख हुए तत्प्रायोग्य विशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसयतके होता है । उससे उसीका उत्कृष्ट अनन्तगुरगा है । वह किसके होता है ? सर्वविशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत क्षपकके अन्तिम समय में होता है। उससे वीतरागका अजघन्यअनुत्कृष्टस्थान अनन्तगुणा है। वह कषायके प्रभावके कारण एक ही प्रकारका है । परन्तु वह उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगी जिन और अयोगी जिनका ग्रहण करना चाहिए । इसप्रकार इस संदृष्टि द्वारा जिनको प्रतिबोध हुआ है ऐसे शिष्योंका इस समय तीव्र मन्दताविषयक अल्पबहुत्व को सूत्रके अनुसार बतावेंगे । यथा
तीव-मन्दताको अपेक्षा मिथ्यान्वको प्राप्त करनेवाले संयतके जघन्य संयमस्थान सबसे मन्द अनुभागवाला होता है, क्योंकि सबसे उत्कृष्ट संक्लेशके साथ मिथ्यात्व को प्राप्त होनेवाले संयतके अन्तिमसमयमें इसका ग्रहण किया है। उसमे उसीके उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुग्गा है, क्योंकि तत्प्रायोग्य संक्लेशसे मिथ्यात्व में गिरने के सम्मुख हुए संयतके अन्तिम समय में पूर्वके संयमस्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानों को उल्लंघकर इसकी उत्पत्ति देखी जाती है। उससे असंयत सम्यक्त्वको प्राप्त होने वाले संयतके जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्वके संयमस्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंका उल्लंघकर यह स्थान उत्पन्न हुआ है। इसका भी कारण यह है कि मिथ्यात्व में प्रतिपातविषयक जघन्य संक्लेश से भी सम्यक्त्वमें प्रतिभातविषयक उत्कृष्ट संक्लेशके अनन्तगणे हीनपनेको देखते हुए उसके उसप्रकार सिद्ध होने में विरोध का अभाव है। उससे उसीके उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्वके जघन्य स्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघकर इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है। उससे संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले संयतके जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्वके उत्कृष्ट स्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघकर इस स्थान की उत्पत्ति देखी जाती है। उससे उसीके उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्वके जघन्य स्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघकर इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । उससे संयमको प्राप्त करनेवाले कर्मभूमिज मनुष्यका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुल्गा है, क्योंकि संक्लेशनिमित्तक पूर्वके प्रतिपातस्थानसे उससे विपरीत स्वरूपवाले इसके जघन्य होनेपर भी अनन्तगुरणेपन की सिद्धि न्याययुक्त है। यहांपर 'कर्मभूमिजके ऐला