________________
१८४ ]
लब्धिसार
[ गाथा २२६
अर्थ – सहस्रों स्थितकांडक व्यतीत हो जाने पर तथा अनिवृत्तिकरणकालका बहुभाग बीत जानेपर असंज्ञीके स्थितिबंधके समान स्थितिबन्ध होता है' ।
विशेषार्थ -- तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक हजारों अनुभागकांडकोंके अविनाभावी ऐसे बहुत हजार स्थितिकांडकोंके स्थितिबन्धा पसरणों के साथ व्यतीत होने पर सातों ही कर्मोका स्थितिबन्ध लक्षपृथक्त्व सागरोपमसे बहुत अधिक घटक हजारपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण हो जाता है । तत्पश्चात् श्रनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभाग के व्यतीत होनेपर असंज्ञीके समान स्थितिबन्ध होता है । इतनी विशेषता है कि मोहनीयकर्मका हजार सागरोपमके चार वटे सात भागप्रमाण असंज्ञीके योग्य स्थितिबन्धके हो जानेपर शेष कर्मोंका अपने-अपने प्रतिभाग के अनुसार हजार सागरोपमका तीन बटे सात भागप्रमाण' और दो बटे सात भागप्रमाण यहां पर स्थितिबन्धका प्रमाण होता है ।
ठिदिबंधपुधत्तगदे पत्तेयं बदुर तिय वि एएदि । ठिदिबंधसमं होदि हु ठिदिबंध मरणुक कमेणेव ॥२२६॥
श्रथं - उसके पश्चात् प्रत्येक स्थानके लिये पृथक्त्व स्थितिबंघापसरण बीत जानेपर क्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रोन्द्रिय द्वीन्द्रिय व एकेन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्ध के समान स्थितिबन्ध होता है |
विशेषार्थ – इतनी विशेषता है कि अपने-अपने प्रतिभाग के अनुसार चतुरिन्द्रिय आदि जीवोंमें क्रमसे सौ सागरोपम, पचास सागरोपम, पच्चीस सागरोपम और पूरे एक सागरोपमके चार बढ़े सात भाग, तीन बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण जो स्थितिबन्ध होता है उसके समान स्थितिबन्ध होता है । यहां पर पृथक्त्वका निर्देश विपुलतावाची है अतः हजार पृथक्त्व ग्रहण करना चाहिए ।
8
१. ध. पु. ६ पृ. २६५ ।
२. ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका ३. नाम गोत्रका
५. चारित्रमोहका स्थितिबन्ध |
६. ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीय व भन्तरायका ।
७.
नरम व गोत्रका |
८.
E.
ज. ध. पु. १३ पृ. २२५ ।
४. ज.ध. पु. १३ पृ. २३३ ।
ज. ध. पु. १३ पृ. २३३ ।