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लब्धिलार
[ गाथा २१८-२१६ तदनन्तर द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिके विशुद्धि में हानिवृद्धिका कथन करते हैंतेण परं हायदि वा वड्ढदि तब्बड्डिदो विसुद्धीहि । उवसंतदंसणतियो होदि पमत्तापमत्तेसु ॥२१॥
अर्थ-दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंका उपशम करनेवाला द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि उसके बाद (अन्तर्मुहूर्त तक विशृद्धि से बढ़ने के बाद) विशुद्धिके द्वारा कभी घटता है, कभी बढ़ता है और कभी अवस्थित रहता है । विशुद्धिको हानि-वृद्धि के प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थान होते रहते हैं !
विशेषार्थ-स्वस्थानको (अप्रमत्तगुणस्थानके ) प्राप्त हुए जीवके संक्लेश और विशुद्धिवश परिणामोंके वृद्धि हानि और अवस्था में संचरणके प्रति विरोधका अभाव है।
अथानन्तर उपसमणिमें होने वाले प्रमुखकार्यों का कथन करते हैंएवंपमत्तमियर परावत्तिसहस्सयं तु कादृण । इगवीसमोहणीयं उपसमदि ण भरणपयडीसु ॥२१॥
अर्थ-इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्त में सहस्रोंबार परावर्तन करके मोहनीयकी इक्कीस प्रकृतियोंको उपशमाता है, अन्य कर्मोको नहीं उपशमाता ।
__विशेषार्थ-जिसप्रकार अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करके स्वस्थानको प्राप्त हुआ उक्त जीव असाताबेदनीय आदिके बन्धके योग्य होता है उसीप्रकार यह भी उपशान्तदर्शनमोहनीय हो त्रिशुद्धिकालको बिताकर प्रमत्त और अप्रमत्तगणस्थानोंमें परावर्तन करता हुआ असातावेदनीय, अरति, शोक और अयश कीर्ति आदि अशुभ प्रकृतियोंका बन्धक होकर उनके सहस्रों वन्धपरावर्तन करता हुआ अन्तमुहर्त काल तक विश्राम करके पश्चात् उपशभश्रेणिके योग्य विशुद्धि के अभिमुख होता है।
अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना पहले हो चुकी और दर्शनमोहका उपशम करके द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि हुआ अतः चारित्रमोहको २१ प्रकृतियां शेष रहीं; जिनके उपशम करनेको उद्यमी हुआ है । मोहनीयकर्मके अतिरिक्त अन्य कर्मोंका उपशम नहीं होता; अतः उनके उपशमका निषेध किया गया है ।
५. ज. ध पु. १३ पृ. २०६ ।