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लब्धिसार
[ गाथा १८८
गुरणा है, क्योंकि जाति विशेष कारण है । असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यंचके सर्वविशुद्धिसे देशसंयमको ग्रहण करने के प्रथम समय में उत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थान होता है जो पूर्वस्थान से अनन्तगुणा है । सर्वविशुद्ध असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यके देशसंयमको ग्रहण करने के प्रथम समयमें पूर्वस्थानसे अनन्तगुणा उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान लब्धिस्थान होता है । जघन्य प्रतिपद्यमान स्थानवाले मनुष्यके दूसरे समय में जघन्य अनुभस्थान होता | कार तियंचके जधन्य अनुभस्थान होता है। ये दोनों स्थान अपने से पूर्व - पूर्व स्थानकी अपेक्षा अनन्तगुरो हैं । सर्वविशुद्धि तिर्यचके पूर्वस्थान अनन्तगुणा उत्कृष्ट अनुभवस्थान स्वस्थान में ही होता है । संवम अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध देशसंयत मनुष्य के अन्तिम समय में उत्कृष्ट अनुभयस्थान अनन्तगुरगा होता है' ।
देश संतजीव अप्रत्याख्यानावरणकषायको नहीं वेदता, क्योंकि वहां उसकी उदयशक्तिका अत्यन्तक्षय पाया जाता है । प्रत्याख्यानावरणीय कषाय भी देशसंयमका श्रावरण नहीं करती, क्योंकि सकलसंयमका प्रतिबन्ध करनेवाले कषायका देशसंयम में व्यापार नहीं होता शेष चार संज्वलनकषाय और नौ नोकषाय उदीर्ण होकर देशसंयमको देशघाति करते हैं । अनन्तानुवन्त्रीकवायके उदयका विनाश पहले ही हो गया है । ये तेरह कषायें देशघातिरूपसे उदीर्ण होकर देशसंयमको क्षायोपशमिक करती हैं । यदि चार संज्वलनकषाय और नौ नोकषायका देशवाति उदय न हो तो देशसंयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि प्रत्याख्यानका बेदन करता हुआ शेष चारित्रमोहनीयका वेदन नहीं करे तो देशसंयमलब्धि क्षायिक हो जाये । चार संज्वलन और नौ नोकषायका.. देशघातिरूपसे उदय अवश्यंभावी हैं ।
॥ इति देशचारित्र विधानं ॥
१.
ज.ध. पु. १३ पृ. १४-१५३, ६ पु. ६ पृ. २७८-२०, क. पा. सु. पृ. ६६६-६७ । ध. पु. ५ पृ. २०२, ज. ध. पु. १३ पृ. १५४
२.
३. तात्पर्य यह है कि ४ संज्वलन और नोकषायों के सर्वघातिस्पर्धकों के उदयक्षय से; और उन्हीं के देशघाति स्पर्धकों के उदय से संयमासंयम लब्धि अपने स्वरूप को प्राप्त करती है । इसलिये यह क्षायोपशमिक है । ( जयधवलाभूल ताम्रपत्र बाली प्रति पू. १७९४; ज. घ. १३/१५५ ) अथवा क्षायोपशम नामक चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने पर संयतासंयतपना उत्पन्न होता है इसलिये यह ( देशसंयम ) भाव क्षायोपशमिक है। प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, संज्वलन चतुष्क और नवनकषायों के उदय के सर्वात्मना चारित्र विनाशशक्ति का प्रभाव होने से उदय को ही क्षय संज्ञा है | उन्हीं प्रकृतियों की उत्पन्न हुए चारित्र का आवरण नहीं करने के कारण उपशम संज्ञा है | क्षय और उपशम इन दोनों से उत्पन्न देशसंयम भाव क्षायोपशमिक है । (ध. ५२०२; घ. ७।............}
४.
ज. प. पु. १३ पृ. १४९-१५६. क. पा. सु. पू. ६६७-६८ ।
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