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लब्धिसार
[ गाथा १८७ विशेषार्थ- सबसे जघन्य लब्धिस्थानसे लेकर ऊपर असंख्यातलोकप्रमाण प्रतिपात स्थान मनुष्योंके योग्य ही होकर तबतक जाते हैं जबकि तत्प्रायोग्य असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लघन कर तिर्यचोंके योग्य जघन्य प्रतिपातस्थान उत्पन्न होता है । वहांसे लेकर तिर्यंच और मनुष्य दोनोंके साधारणरूपसे पाये जानेवाले असंख्यातलोकप्रमाण प्रतिपातस्थानोंके जाने पर उस स्थान पर तिर्यचसम्बन्धी उत्कृष्ट प्रतिपातस्थानकी व्युच्छित्ति हो जाती है । तत्पश्चात् पुनः असंख्यातलोकप्रमाण स्थान प्रागे जाकर इस स्थान पर मनुष्यसम्बन्धी उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान विच्छिन्न होता है। इसके बाद असंख्यातलोकप्रमाण अन्तर होकर पुनः मनुष्य संयतासंयत का जघन्य प्रतिपद्यमान स्थान होता है। तत्पश्चात् असंख्यातलोकप्रमाण स्थान जाकर तिर्यंच संयता. संयतका जघन्य प्रतिपद्यमान स्थान होता है। वहां से लेकर दोनोंके ही समानरूपसे असंख्यातलोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर वहां तिर्यंच संयतासंयत के उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थानकी व्युच्छित्ति हो जाती है। उससे भी असंगतिलोकगार स्थानकाकर मनुष्योंका उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थान विच्छिन्न हो जाता है। तत्पश्चात् असंख्यातलोकप्रमारण अन्तर होकर पुनः मनुष्य संयतासंयतके जघन्य अनुभयस्थान होता है । उसके बाद असंख्यातलोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर तिर्यंच संयतासंयतके जघन्य अनुभयस्थान होता है। तत्पश्चात् दोनों के ही साधारण असंख्यातलोकप्रमाए स्थान ऊपर जाकर तिर्यंच संयतासंग्रतके उत्कृष्ट अनुभयस्थान विच्छिन्न हो जाता है। तत्पश्चात् फिर भी असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर मनुष्य संयतासंयतका उत्कृष्ट अनुभयस्थान उत्पन्न होता है।
यहां पर प्रतिपातस्थान अधस्तन गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले अन्तिमसमय वाले देशसंयतके होते हैं। प्रतिपद्यमानस्थान देशसंयमको ग्रहण करनेके प्रथमसमयमें होता है । उपर्युक्त अन्तिम और प्रथम समयको छोड़कर शेष समस्त मध्यम अवस्थाके योग्य स्वस्थान सम्बन्धी और उपरिम गुणस्थानके अभिमुख हुए स्थान प्रनुभयस्थान हैं । इन तीनों स्थानोंकी संदृष्टि इसप्रकार है
००००००००००००००००००००००००००००००००००००० प्रतिपात लब्धि स्थान | अन्तर । ००००००००००००००००००००००००००००००००००० ०००० प्रतिपद्यमान लब्धि स्थान । अन्तर । ०००००००००००००००००००००००० ००००००००००००००००००० अनुभय लब्धि स्थान । १. प. पु. ६ पृ. २७७; ज. प. पु. १३ पृ. १४८ ।