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सब्धिसार
[ गाथा १२८-१३० मिथ्यात्वकी दो समय स्थिति शेष रहती है उस समय वह स्तिबुक संक्रम द्वारा सजातीय प्रकृति में संक्रमित हो जाती है। इसलिये तदनन्तर समयमें मिथ्यात्वसम्बन्धी प्रकृति सत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म निःसत्त्व हो जाते हैं ।
इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिमकांडकको अन्तिमफालिके कुछ कम डेढ़ गुणहानि समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यको सर्वसंक्रम द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिमें संक्रमित करनेपर सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है, क्योंकि अनिवृत्तिरूप परिणामोंके द्वारा दुरापकृष्टिरूप से घातित करनेके बाद शेष बची स्थितिके जघन्य होने में विरोधका अभाव है, परन्तु उससमय सम्यग्मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम उत्कृष्ट होता है, क्योंकि गुणितकर्माशिक जीवकी विवक्षामें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होने में विरोधका अभाव है तथा उसीसमय सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म होता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका उसमें संक्रम हुआ है । इसके पश्चात् दो समयकम उदयाबलि गलिन होने पर सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म, दो समय कालप्रमाण, एक स्थितिरूप होता है ।
___ अब मिद्विक को अन्तिमफालिका गणश्रेणिमें निक्षिप्तद्रव्य के कमसहित प्रमाणप्राविका कथन करते हैं
'मिस्सदुगचरिमफाली किंचणदिवड्ड्समयपबद्धपमा । गुगासढि करिय तदो असंखभागेण पुवं व ॥१२॥ सेसं विसेसहीणं भडवस्सुवरिमठिदीए संखुद्धे । चरमाउलि व सरिसी रयणा संजायदे एत्तो ५१२६॥ 'अडवस्तादो उवरि उदयादिप्रवद्विदं च गुणसेढो । अंतोमुहुत्तियं ठिदिखंडं च य होदि सम्मस्त ॥१३०॥
१. ज. ध पु. १३ पृ. ५१-५२-५३ । २. ज.ध. पु. १३ पृ. ५५-५६ । 3. ज.ध. पु. १३ पृ. ६४ । ४. ज.ध. पृ. १३ प. ५६-६० व ६५-६६ ।