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। गाथा २.
है, किन्तु दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म पल्यापमप्रमाण अवशिष्ट रहने पर स्थितिकाण्डकायाम पल्यापनक. सरूवातबहुमागप्रमारण होता है। उसके पश्चात जो-जो स्थितिसत्कर्म शेष रहता है उस-उसका सख्यातबहुभाग स्थितिकाण्डकायाम होता है । । इसप्रकार सहस्रो स्थितिकांडकोंके व्यतीत होनेपर पल्योपमके सबसे अन्तिम संख्यात । भागप्रमाण दुरापकृष्टि संज्ञा बाला स्थितिसत्कर्म होता है। जिस प्रवशिष्ट सत्कर्म मेंसे संख्यात बहुभागको ग्रहण कर स्थितिकांडकका घात करनेपर घात करने से शेष बचा स्थितिसत्कर्म नियमसे पल्पोपमके असंख्यातवेंभागप्रमाण होकर अवशिष्ट रहता है, उस सबसे अन्तिम स्थिति सत्कर्मकी दूरापकृष्टि संज्ञा है, क्योंकि पल्योपप्रमाण स्थितिसत्कर्म से अत्यन्त दूर उतरकर सबसे जघन्य पल्योपमके संख्यातवेंभागरूप से इस स्थितिसत्कर्म का अवस्थान है पल्योगमप्रमाला स्थितिसत्कर्म से नीचे अत्यन्त दूरतक अपकर्पित की गई होनेसे और अत्यन्त कृय-अल्प होने मे यह स्थिति दुरापकृष्टि है। यहां से लेकर असंख्यात बहुभाग को ग्रहण कर स्थितिकाण्डक घात किया जाता है अतः वह स्थिति दुरापकृष्टि कहलाती है। यह दरापकाष्टांस्थातक मद स्वरू: क्या .. वृत्तिकरारूप परिणामरकन्द्वानःसास करन-स अधाशा स्थिांतवामगर, नमक : : का विरोध है । पर स्वभागप्रमावालाम धन्ध अम. बहुभागवाले संख्यातहार स्थातकांजक व्यत्तात हानपर वही सभ्यकावा अस -- समवप्रबद्रों की उदीरगा होता है। यहां से पूर्व सवत्र हा असख्यातलोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार सम्यक्त्व को उदोरणा प्रवृत्त होती थी, परन्तु यहां पर पल्योपमके असंख्यातवेंभागप्रमाग प्रतिभागके अनुसार सम्यक्त्वकी उदोरणा प्रवृत्त हुई । अपकर्षित समस्त द्रव्य में पल्योपमके असंख्यातवेंभाग का भागदेकर जो लब्ध पावे उतने द्रव्यको उदयावालिसे बाहर गुणगीमें निक्षिप्त करता है । गुणश्रेणीके असंख्यातवेंभाग मात्र द्रव्यको जो असंख्यात समयप्रबद्ध मात्र है, इस समय उदीरित करता है । तदनन्तर बहुत स्थितिकाण्डको के व्यतीत होने पर मिथ्यात्वके अन्तिमकाण्डक में मिथ्यात्वकी उदयावलिसे बाहरके सर्वद्रव्यको ग्रहण किया। इसप्रकार मिथ्यात्वका उदयावलि अर्थात् उच्छिष्टावलिमात्र द्रव्य शेष रह जाता है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व ।
१. २. ३.
ज..पु १३ १ ४४ । ज. प. पु. १३ पृ. ४४-४५. ! ज. ध, पु. १३ पृ. ४३।