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लब्धिसार
[ गाथ! १७३-१७४ होता । पिछले समयको अपेक्षा स्थितिबन्ध पल्योपमका संख्यातवांभाग हीन होता है । सहस्रों अनुभागकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल स्थितिबन्धकाल व अनुभागकाण्डक-उत्कीरणकाल ये तीनों एक साथ समाप्त होते हैं । इसप्रकार हजारों स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होने पर अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है । : प्रागे घेशसंयमको प्राप्तिके प्रथमसमयसे गुणश्रेणिरूप कार्यविशेषका निर्देश करते हैं
से काले देसवदी असंखसमयप्पबद्धमाहरियं । उदयावलिस्त वाहिं गुणसेडीमवद्विदं कुणदि ।।१७३॥
अर्थ--देशवती होनेके कालमें अर्थात् प्रथमसमयमें असंख्यात समयप्रबद्धोंको • अपकर्षणकर उदयावलिबाह्य अवस्थित गुणश्रेरिणकी रचना होती है । . विशेषार्थ-संयमासंयमगुरणको प्राप्त होनेके प्रथमसमय में ही उपरिम स्थितियों के द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेरिणनिक्षेप करता हुआ उदयावलिके भीतर { निक्षेपार्थ अपकृष्टद्रव्यको ) असंख्यातलोकका भाग देने पर जो भाग लब्ध प्रावे उतने द्रव्यको गोपुच्छाकारसे निक्षिप्तकर उसके बाद उदयावलिके बाहर अनन्तर स्थितिमें असंख्यातसमयप्रबद्धोंका सिंचन करता है । पुनः उससे उपरिम अनन्त र स्थितिमें असंख्यातगुरणे 'द्रव्यका सिंचन करता है। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होनेतक असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे सिंचन करता हुआ जाता है ! तदनन्तर उपरिमस्थितिमें असंख्यातगुरणे हीन द्रव्यका सिंचन करता है। इसके पश्चात् अतिस्थापनावलिसे पूर्व अन्तिम स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर विशेषहीन द्रव्यका सिंचन करता है, इसप्रकारका गुणश्रेणिनिक्षेप यहांपर प्रारम्भ किया ।
प्रब देशसंयतके कार्य विशेषका ( एकान्तानुवृद्धि संयत व अथाप्रवृत्त देशसंयतका ) कथन करते हैं... दव्वं असंखगुणिदक्कमेण एयंतवढिकालोत्ति ।
बहुठिदिखंडे तीदे अवापवत्तो हवे देसो ॥१७४।।
१. क. पा. सु. पृ. ६६२ सूत्र २४, प. पु. ६ पृ. २७२ का दूसरा पेरा ।