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गाथा १६४ - १६६ ]
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उससे संख्यातगुणा कृतकृत्यवेदकका प्रथम समय में दर्शनमोहनीयके विना शेष कर्मो का जघन्य स्थितिबन्ध है, क्योंकि कृतकृत्यवेदक के प्रथम समयमें होनेवाला स्थितिबच अन्तःकीड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है ||३०| उससे उन्हींका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्याता है, पूर्व के प्रथम समय में होनेवाला उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यहां विवक्षित है ||३१|| उससे दर्शनमोहनीयके बिना शेष कर्मोंका जघन्य स्थितिसत्कर्म संख्यातगुण है, क्योंकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा के अतिरिक्त अन्यत्र सम्वग्दृष्टियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे भी जघन्य स्थितिसत्कर्म नियमसे संख्यातगुणा होता है ||३२|| उससे उन्हींका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है, क्योंकि अपूर्वकरण के प्रथम समय में सभी कर्मोंका अन्तःकोड़ाकोडीप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होता है । उसका अभी घात नहीं हुआ है अतः घात होकर शेष बचे हुए पूर्वके जघन्य स्थितिसत्कर्मसे इसके उक्तप्रकार से सिद्ध होने में कोई बाधा नहीं आती है ||३३|| ( गाथा १६३) '
अब तीन गाथानों में क्षायिक सम्यक्त्यके कारण गुण-भवसोमा क्षायिक लब्धित्व आदिका कथन करते हैं
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लब्धिसार
सत्तरहं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । मेरु व शिष्पकंपं सुम्मिलं श्रक्खयमतं ॥ १६४ ॥ दंसणमोहे खविदे सिझदि तत्थेव तदियतुस्यिभवे ।
दिक्कत तुरियभवेा विस्तति सेससम्मे व ।। १६५ ।। सत्तग्रहं पयडीणं खयादु अवरं तु खइयली दु । उक्करसखइयलडी घाइचउक्कखएणु ६वे ॥ १६६॥
अर्थ -- ग्रनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनमोहनीय त्रिक इन सात प्रकृतियों के क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व होता है सो मेरुके समान निष्कम्प अर्थात् निश्चल है, सुनिर्मल अर्थात् शंकादि मलसे रहित है, अक्षय अर्थात् नाश से रहित है तथा अनन्त अर्थात् ग्रन्तसे रहित है ।
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क. पा. सुत. पू. ६५५ से ६५७; धबलं पु. ६ पृ. २६३ से २६६; ज. ध. पु. १३ पू. ९१ से १०० १ २. गो. जी. ६४७; ध. पु. १ पृ. १७२ प्रा. पं. सं. पू. ३५ ।
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