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गाथा १३१ ].
लब्बिसार
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पुनः इन्हीं अन्तिम दो कालिके पतन समय में प्राठवर्षकी स्थिति करने के समय में अनन्तगुणा हीन होकर लता के समान एक स्थानीय अनुभाग हुआ। यहांसे लेकर पूर्व में जो अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा अनुभागकांडकघात होता था उसका अभाव हुआ और प्रति समय श्चनन्तगुणे हीन क्रमसे श्रनुभागका अपवर्तन होने लगा। वहां अनन्तरवर्ती श्रावर्ष स्थिति करने के समय से पूर्व समय में निषेकका जो अनुभाग सत्त्व था उससे अनन्तगुरणाहीन आठवर्ष स्थिति करने के समय में उदयावलिके उपरवर्ती उपरितनावली के प्रथम निषेकका अनुभागसत्त्वं श्रवशिष्टं रहता है । अवशिष्ट अनन्त बहुभागरूप अनुभागका विशुद्धि-विशेष से अपवर्तन हुआ नाश हुआ। तथा उसी समय में उदयावलिके अन्तिम निषेकका अनुभागसत्त्व अपने से उपरवर्ती उस उपरितनावलिके ( द्वितीयावलि के ) प्रथम निषेक सम्बन्धी प्रभाग सत्त्वसे अनन्तगुणा हीन रहता है तथा अवशिष्टका नाश होता है । पुनः उससे अनन्तगुणा हीन उदयावलिके प्रथम निषेका अनुभागसत्त्व रहता है, शेषका नाश होता है । उससे अनन्तगुणाहीन आठवर्ष स्थितिकरने के समय से लेकर अनन्तरवर्ती आगामी समय में अनन्तगुणाहीन अनुभागसत्त्व होता है । इसप्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणा हीन अनुक्रमसे उच्छिष्टावलिके अन्तिम समय पर्यन्त अनुभागका अपवर्तन जानना ।
भावार्थ - जिससमय सम्यक्त्व प्रकृतिका आठवर्ष प्रमाण स्थिति सत्कर्म होता है। उससे पहले सम्यक्त्व प्रकृतिका अनुभाग लता दारुरूप द्विस्थानीय था । उसकी अब एक लता स्थानीयरूप से प्रतिसमय अपवर्तना प्रारम्भ होती है, पहले अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा अनुभागकाusrat रचना करता था अब पूर्वके काण्डकघातका उपसंहारकर प्रत्येक समय में सम्यक्त्व प्रकृतिके अनुभागकी अनन्तगुरणी हानिरूपसे अपवर्तना होती है । अनन्तरपूर्वं समय के अनुभाग सत्कर्मसे वर्तमान समय में अनुभाग सत्कर्म उदयावलिसे बाहर ( द्वितीयावलिके प्रथम निषेकमें) अनन्तगुरणा हीन है । इस अनुभागसत्कर्म से उदयावलि के भीतर अनुप्रविशमान ( उदयावलिके अन्तिम निषेक में ) अनुभागसत्कर्म ग्रनन्तगुणा हीन है । इससे भी उदय समय में प्रवेश करनेवाला ( प्रथम निषेकमें) अनुभाग सत्कर्म अनन्तगुणा हीन है । इसप्रकार दर्शनमोहनीय के क्षय होनेके एकसमय अधिक एक प्रवलि पूर्वतक प्रत्येक समयमें इसीप्रकार जानना चाहिये । इसके पश्चात् एक प्रावलि कालतक उदय में प्रविशमान अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना पाई जाती है' |
१. ज. ध. पु. १३ पृ. ६३ ॥