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लब्धिसार
[ गाथा १०० के कालमें छह प्रावलि शेष रहने पर वहां से सासादन गुणस्थानको प्राप्ति किन्हीं भी जीवों में सम्भव देखी जाती है । "गोरासाणो य खीरा म्मि" अर्थात् उपशम सम्यक्त्व का काल क्षीण होने पर यह जीव सासादन गुणस्थानको नियम से नहीं प्राप्त होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका-ऐसा किस कारण से है ?
समाधान-क्योंकि उपशम सम्यक्त्वके काल में जघन्यरूप से एक समय शेष रहने पर और उत्कृष्ट रूप से छह प्रावलि. काल शेष रहने पर सासादनगुणस्थान परिणाम होता है, इसके बाद नहीं ऐसा नियम देखा जाता है । अथवा “णीरासागो य खीणम्मि" ऐसा कहने पर दर्शनमोहनोयका क्षय होने पर यह जीव निरासान ही है, क्योंकि उसके सासादनगुणस्थानरूप परिणाम सम्भव नहीं है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । कारण कि क्षायिक सम्यक्त्व अप्रतिपातस्वरूप होता है और सासादन परिणाम के उपशम सम्यक्त्व पूर्वक होनेका नियम देखा जाता है'।
आगे सासावनके स्वरूप एवं कासकर कथन करते है'उवसमसम्मत्तद्धा छावलिमेत्ता दु समयमेत्तोत्ति । भवसि? भासाणो अणभरणदरुदयदो होदि ॥१०॥
अर्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके काल में उत्कृष्टकाल छह आवलि और जघन्यकाल एक समय मात्र अवशेष रह जाने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारों में से किसी एक के उदय होने से सम्यक्त्व की प्रासादना { विराधना ) होकर सासादन गुणस्थान होता है ।
विशेषार्थ--सम्यग्दर्शन की घातक मिथ्यात्वप्रकृति व अनन्तानुबन्धोकषाय चतुष्क है । "मिथ्यात्वं नाम विपरोताभिनिवेशः । स च मिथ्यात्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते ।" (ध. पु. १ सूत्र ११६ को टीका ) विपरीत अभिनिवेश का नाम मिथ्यात्व है और वह विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनों कर्मों
१. ज.ध. पु. १२ पृ. ३०२-३०३ । एवं ध. पु. ६ पृ. २३६ । २. पाठान्तरेणाऽत्रोक्तभावो अन्यत्रापि दृश्यते, प्रा. पं. सं. पृ. ६३३ श्लो. ११; गो. जी. गा. १६ । ३. ज. प. पु. ४ पृ. २४; ज. व. पु. १० प. १२३-२४; ज, ध. पु. १२ पृ. ३०३ ।