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गाथा १०६ ] लब्धिसार
[ ६१ अर्थ-सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में तत्त्वों का और पदार्थों का अथवा तत्त्वार्थ का चल-मलिन-अगाढ़ सहित श्रद्धान करता है तथा स्वयं न जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है । सूत्र के द्वारा समीचीनरूप से दिखलाये गये उस अर्थका जब यह जीव श्रद्धान नहीं करता उस समय से लेकर वही जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है ।
विशेषार्थ-सम्यक्त्वप्रकृति के द्वारा सम्यग्दर्शनकी स्थिरता और निष्कांक्षता का घात होता है । स्थिरता का घात होने से चल और अंगाढ़ दोष उत्पन्न होते हैं । निष्कांक्षता का घात होने से मल दोष उत्सान होता है, जैसे पुरुष लाठी को पपाडे रहता है, किन्तु कांपती रहती है, स्थिर नहीं रहती । इसीप्रकार वेदक सम्यग्दृष्टि का तत्त्वार्थश्रद्धान स्थिर नहीं रहता-चलायमान रहता है। स्थिरता के घात के कारम श्रद्धा भी दृढ़ नहीं होती। निष्कांक्षता का घात होने से शंका, कांक्षा, आदि दोष सम्यक्त्व को मलीन करते रहते हैं। इसीलिये गाथा में कहा गया है कि सम्यक्त्वप्रकृति के उदय में चल-मलिन व प्रगाढ़ सहित तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है । "सहहह असब्भावं" ऐसा कहने पर असद्भूत अर्थ का भी सम्यग्दृष्टि जीव गुरुवचन को प्रमाण करके स्वयं नहीं जानता हुआ श्रद्धान करता है । इस गाथा के उत्तरार्ध द्वारा आनासम्यक्त्वका लक्षण कहा गया है ।
शंका-प्रज्ञानवश असद्भूत अर्थ का ग्रहण करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?
समाधान-यह परमागम का ही उपदेश हैं ऐसा निश्चय होने से उस प्रकार स्वीकार करने वाला वह जीव परमार्थ का ज्ञान नहीं होने पर भी सम्यग्दष्टियने से च्युत नहीं होता।
यदि पूनः कोई परमागमके ज्ञाता विसंवादरहित दूसरे सूत्र द्वारा इस अर्थ को यथार्थ रूप से बतलाये फिर भी बह जीव असत् प्राग्नहवश उसे स्वीकार नहीं. करता है तो उस समय से वह जीय मिथ्यादृष्टि पद का भागी हो जाती है, क्योंकि वह प्रवचन विरुद्ध बुद्धिवाला है ऐसा परमागम का निश्चय है। इसलिये यह ठीक
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१. को भागो सम्मत्तस्स तेरण घाइज्जदि ? पिरत रिणक्कक्खत्त । (ज. ध. पु. ५ पृ १३०)